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Showing posts from 2015

संगिनी

कह दो तो दिन को भी मैं रात कह दूँ तपती हुई धूप को भी भीगी- भीगी सी बरसात कह दूँ, क्या मिलेगी इससे तुम्हें सम्पूर्ण खुशी कि कठपुतली - सी बनकर रहे तुम्हारी प्रेयसी, रूढ़ियों के पार तुम क्यों नही जाते, कारागार से निकल अपनी संपूर्णता क्यों नही अपनाते ? मेरा आँचल इतना छोटा तो नही कि माँ जैसी ममता बहन जैसा दुलार दोस्त के जैसा प्यार नही संभाल सके, तुम्हारे दामन में ढलकर भी अपना अस्तित्व नही संभाल सके, हमने संभाली हैं इसमें ही पीढ़ियाँ फिर क्यों इतना असमंजस में हो मुस्कराओ प्रिये कि तुम अपनी संगिनी के हृदय-मधुरस में हो -----  नीरु 

चिराग़

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साथ दिल के चिराग़ जलते हैं ये हुनर भी कमाल रखते हैं   रात काली रही किसे है ग़म रोशनी का वजूद रखते हैं दे गया ख्वाब फिर नया कोई प्यार के रंग खास सजते हैं हो सके तो वहीं नज़र रखन...

किससे कहें

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सह रहे हम चुपचाप क्यों, बयान किससे कहें क्यों खोया सुकून, जिस्म बेजान किससे कहें दहशतों-नफ़रतों का आखिरी अंजाम दर्द यहाँ  इंसान हो रहा हैवान किससे कहें  ---- नीरु (निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी)

तितली के रंग

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बचपन की प्यारी ताज़गी का ढंग  अभी बाकी है लम्हों में  उनके जिंदगी का संग  अभी बाकी है खो न जाये कहीं बचपन-सुकून-सपनों के बगीचे नन्ही हथेली में तितली का   रंग अभी बाकी है ----- निरुपमा मिश्रा

रोशनी का त्योहार

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रोशनी होती दिलों में हमेशा प्यार से मिटायें  हर ग़म का अंधेरा संसार से  बेबसी के आँसू हों नही किसी आँख में सीखते हम यही रोशनी के त्योहार से ----- निरुपमा मिश्रा

रूठ गये तो

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रूठ जायेगा रब तो भी वजह होगी कि बनाई दुनिया उसी ने संभालेगा वही सब, रूठ जायेगा ज़माना तो वजह होगी कि चाहिये दुनिया को अपने मतलब के लोग कभी तो कहीं तो जरूरत होगी ज़माने को भी मेरी, मगर मेरे अपने तुम हाँ तुम्ही रूठ गये तो जीने की वजह क्या होगी मालूम नहीं क्योंकि अपनों के संग होने की कोई वजह तो नही होती रिश्तों के बीच अपनेपन की चाह ये विश्वास की डोरी बाँधती हमें बेवजह भी लेकिन जब कभी तलाशते साथ होने की वजह तो अक्सर अपने- आप से रूठ जाते हम खुद-ब- खुद बेवजह -----नीरु ' निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

तुम्ही रहते हो हर पल सपनीली निगाहों में

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तुम्ही रहते हर पल सपनीली निगाहों में रहना साथ जीवन की पथरीली राहों में कभी तो अक्स उभर आता  कभी ओझल हो जाते हो , कभी सांसों के करीब कभी बीते पल हो जाते हो  तुम्ही तो बसते  हो मेरी कल्पनाओं में  रहना साथ जीवन की पथरीली राहों में तुम वही हूबहू जिसको दिल मेरा मोहब्बत कहता तुम्हारी आरजू में ही दिल मेरा धड़कता रहता तुम्ही तो हरदम मेरे प्यार की चाहों में रहना साथ जीवन की पथरीली राहों में मायूसियों में कभी मुझे तुम मिटने नही देते किसी भी ग़म में कभी बेबस उलझनें नही देते  जाने नही देते निराशा की पनाहों में  रहना साथ जीवन की पथरीली  राहों में  प्यार- भरोसा ही तो सभी रिश्तों का सहारा है सपनों से सजा हुआ सुंदर संसार हमारा है  डूबने पाये नही कश्ती कभी आहों में  रहना साथ जीवन की पथरीली राहों में चाँद की गवाही में अपने प्यार की रोशनी होगी महफिल में सितारों की महकी- महकी चाँदनी होगी  खुशबुओं के रंग बिखर जायेंगे राहों में रहना साथ जीवन की पथरीली राहों में तुम्हीं रहते हर पल सपनीली निगाहों में रहना साथ जीवन की पथर...

हौसला पतवार है

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वक्त के आगे कहाँ चलता किसी का वार है जो नही समझे समय पर तो गया वो हार है कौन कितना है सही कोई कहे कैसे भला हम सही हैं तुम गलत हो बस यही तकरार है चाल चलने में लगी कैसी दिमागी  साजिशें दिल बहुत मासूम धोखा  यार बेशुमार है कह रहा है कौन अपने आप से ही बस यही पास आयेगा किनारा हौसला  पतवार है बीत जायेगा  समय जो खार बनकर है मिला प्यार है जब साथ अपने कब खुशी दुश्वार है ------- नीरु 'निरुपमा मिश्रा  त्रिवेदी'

खोल दे मन के द्वार

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मुस्कान तेरी चंपई रूप तेरा हरसिंगार अब खोल दे मन के द्वार   तन है थामें सांस जब तक रहे शक्ति-आभास तब तक   स्वयं तुम नदिया की धार अब खोल दे मन के द्वार लता पनपे तुमसे प्यार की बगिया हो ममता-दुलार की शक्ति का तुम ही उपहार खोल दे अब मन के द्वार भावनायें जब होती मनोहर हो जाता जीवन सुमन- सरोवर महक जाता है संसार खोल दे अब मन के द्वार -----  नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

क्यों

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पत्थरों में ढाल दिया अस्तित्व और यूं ही जीवन बीत गया क्यों, सबके गीतों को तो बोल दिये अपने पर स्वयं के सुख-दुःख का खो संगीत गया क्यों, इंसान ही तो बेजान नही कोई स्पंदन तो कहीं बाकी फर्ज निभा कर भी मिले पराजय जग ये हरदम जीत गया क्यों,, ---- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी' 

कलियाँ

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खुशबुओं से भिगोने अपने चमन को कलियाँ छोड़कर जाती ये अपने बाबुल की गलियाँ धान के पौधे सा कोमल है इनका वजूद छलावों की धूप में स्वार्थ बरसाये दुनियाँ ----- निरुपमा मिश्रा

उम्र

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थामकर भरोसा नन्हे कोमल हाथों से वो इठलाता हुआ बचपन अनुभवी कंधों पर बैठकर देखता पूछ लेता बीच बीच में कैसी है दुनिया, बता देता यूं ही अनुभव कि तेरे-मेरे जैसी ये दुनिया और शब्दों के पीछे बिखरे पन्नों में समय की स्याही के रंग देखने लगता, कोमल रंगों को पक्का होने तलक कितने रंग देखने होंगे, बचपन से बुढ़ापे के बीच उम्र की नादानियां भूल जाती अपनी ताकत की दिशायें- सीमायें ख्वाबों-हकीकतों के साथ जब उम्र की आँखों पर चढ़ने लगते अनुभव के चश्में तब तस्वीरों के रंग समझ में आते, बचपन के सवाल सुनती युवा दिल की उलझनें देखती अपने भी कितने सवालों- उलझनों के हल खोजती वो अनुभवी उम्र ---- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

आनलाइन फार्म

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लम्बी-लम्बी कतारों में मुरझा जाते चेहरे इंतजार करते-करते, आनलाइन दर्ज होनी थी बेरोजगारी की टीस, चालीस-छियालीस जगहों के लिए पाँच-छह लाख से ऊपर जाती संख्याओं में खुद को दर्ज कराते उंगलियां थरथराती, काफी जद्दोजहद के बाद जरूरतों को आनलाइन फार्म में दर्ज करने की खुशी आँखों में नये सपने सजाने को सजग हो जाती धीरे-धीरे, तारीखों के साथ बीतते समय में इंतजार करते -करते धुंधली चमक और फीके चेहरे  लिये फिर से लगती लम्बी कतार आनलाइन फार्म भरने के लिए \ ------ नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

सांकल ( दरवाजे की डोर)

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खोल दी मैंने अपने और कई घरों के दरवाजों की सांकल आहिस्ते से, ये सोचकर कि रोशनी का साथ होना भी जरूरी , बहुत अंधेरा होता है कितने चेहरे, कैसे चेहरे हैं कुछ पता नही चलता, ऐसे में घर की चौखट से निकलो तो रास्तों पर भी अंधेरा ही मिलता है  , मिल जाते वहाँ अनगिनत पैर नही दिखते जिनके चेहरे मगर, कुछ पैर चलते - भागते कुछ डगमगाते हुए लगते जो कि आते हुए अपनी ओर ही, ऐसा एहसास होता अचानक कि कई विषधर चले आ रहे हों उन पैरों  की जगह, कई दूसरे पैर उन पैरों को देख परवाह नही करते और बेफिक्र अपनी राह चलते, कई और तो चुपके से अपने को महफूज रखने को दिशायें तलाशते, लेकिन कोई मेरे डरे, सहमें हुए पैरों के साथ नही चलता, ये पैर किसके हैं नही पहचाने जाते उनके चेहरे भी क्योंकि घर से ही शायद अंधेरा मेरे साथ चल रहा होता, तभी तो आज मैंने घर से निकलने के साथ खुद ही खोल दी है अपने और अपने रास्तों में मिलते घरों के बंद दरवाजों की सांकल कि रोशनी लेकर साथ चलूं और लौटकर आ सकूं अपने घर को शायद मैं , सुरक्षित ----- निरुपमा मि...

चेहरे

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नकाबों में छुपे हैं चेहरे कितने झूठे थे ख्वाब जो, वो सुनहरे कितने निगाहें भी निगेहबां भी हमारे वो दिखाये अक्स जो, वो दोहरे कितने ----  नीरु ( निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी)

सच-झूठ

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जिंदगी के अनेक रूप होते हैं,कभी छाँव तो कभी धूप,ऐसे ही कभी बदलते मौसम जैसे रंग बदलते हैं रिश्ते भी, फिर भी मन की डोर से बंधे रिश्ते कभी मन से दूर नही होते|       वसुधा की माँ के अस...

देश

देश के लिए भी तो मशविरा करिये कुर्बान अपनी जिस्म-ओ-जां करिये अंधेरा न हो रास्तों पर कभी भी हो सके तो चिराग़ -सा जला करिये ---- निरुपमा मिश्रा " नीरू"

परिवर्तन

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जानती हूँ जीवन में आगे जाने के लिए अपनी मजबूत जगह बनाने के लिए अपने को बहुत बदलना पड़ता है, पर इस बदलने की कोशिश में कहीं हम खुद को ही न  कहीं भूल जायें, अपने चेहरे पर किसी और का मुखौटा न लगायें, जरूरी है कुछ पाने के लिए कुछ खोना, लेकिन जरूरी तो नही ऐश्वर्य पाने के लिए ईश्वर को खोना,,,, ----- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

मित्रता

प्यार,स्नेह,ममता का भला कोई क्या मोल दूँ मैं शब्दों से ऊपर जो, उसे कोई क्या बोल दूँ मैं रिश्तों में दोस्ती है तो कायम दोस्ती से रिश्ते साँसें हैं जिनसे,नाम कोई क्या अनमोल दूँ ...

कृतज्ञ राष्ट्र की भावभीनी श्रृद्धांजलि,, सलाम हमारा आदरणीय कलाम जी को

गर्व उन्नत भाल के थे सम्मान, विजय-तिलक सरीखे राष्ट्र-नयनों ने उनके संग निज स्वप्न हैं सफल देखे शिक्षक थे हिंदुस्तानी, तो शिक्षक समान ही विदा हुए ज्ञान,विज्ञान,स्वाभिमान का आजीवन संगम अनूठे ------ नीरु 

मैं हूँ मुझमें

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मैं कभी अपने से अलग तो नही, डरती अपने को खोने से कहीं, जीवन की चौखट पर रहे सुख-दुःख मेहमान सदा, सीखी है मैंने जिंदगी हँसकर जीने की अदा, आँखों में मेरे संजोती  आशायें रोशनी दर्द में भी होंठों पर हँसी, बिखराव में सबको समेटते अगर कभी मैं  अंधेरों में भटकती  तो मेरी आस्थायें मुझे खुद से मिलातीं मेरे संस्कार जीवंत रखते  मेरे जीवन- अस्तित्व को, बहुत अच्छा  कि मैं कहीं खोई नहीं, मिल ही जाती  आसानी से मैं हूँ शाश्वत मुझमें ------- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

राह परछाई नही

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साथ चलती किसके कोई राह परछाई नही कौन जानें मुश्किलें कब साथ में आई नही दे गया कोई कली की आँख में सपने नये आस में वो शाम तक यूँ ही तो मुरझाई नही मीत हैं सुख के सभी कोई कभी दुःख में नही भीड़ में रहते हुए क्या साथ तन्हाई नही भूख ने छीना यहाँ  ईमान भी इंसान का शर्म आती है मगर मजबूर टिक पाई नही बदलते मौसम कहाँ तुमको कहा हमने कभी देखने को असलियत तो पास बीनाई नही ------ निरुपमा मिश्रा " नीरू"

अज्ञानी

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चलो, उठाओ किताबी बातें कहीं और लेकर जाओ, यहाँ हर शब्द धुंधले नज़र आते हैं जब अनुभव से परे बातें बताते हैं, खुल जाये मन की आँखें तो खोल लो, अपनी भावनायें भी तो तौल लो, अपने फर्ज़ से मुँह छिपाना, परछाई-मृगतृष्णा के पीछे भागना क्या ज्ञान कहलाता, रहने दो फिर तो मुझे अज्ञानी बने रहना भाता ,,,, ----- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

जीवन की गाड़ी

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एक की अपूर्णता पूर्ण हो जाती दूसरे का सामर्थ्य पाकर हाथ में हाथ थामें कदम मिलाते कदमों से, सुनते हैं एक- दूजे के सुख-दुःख छिपे उनकी धड़कनों में, जीवन की गाड़ी के दो पहिये बराबर सहयोग करते, तमाम झंझावात- खुशियां समेटते, एक राह के हमसफर जीवन भर का साथ जीवनसाथी अगर विपरीत रूप लेकर अलग - अलग दिशाओं के रुख किये चलते रहें तो जीवन नरक से बदतर हो जाता ,फिर तो साथ - साथ चलना सम्मान संजोये रखने की मजबूरी कहलाता ----- नीरु ' निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

तुम

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बिना तुम्हारे मैं एक दिन की कल्पना करूं भी तो कैसे, तुम्हे खोने के ख्याल से भी डरती , दूरियां न आयें कभी कुछ कहने कुछ सुनने की आस में हर पल रहती, वो अनकहे शब्द जो कहना चाहे थे मैंने पर कहने- सुनने के बीच आ जाते हैं कुछ अधूरे सपने, बिखर जाती सपनों की तरह जब तुम्हे सपनों में खोया हुआ पाती, महसूस करो न तुम भी, भले ही पूरे न हों ये अधूरे सपनें, रहें हमेशा अपने बस अपने, मेरी खामोशियां कहतीं, कि तुम हो मेरे, मेरे हो सिर्फ  और सिर्फ तुम ----- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

स्वयं

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जिसने जीवन को जाना स्वयं को पहचाना वो सागर की तरह गंभीर होता है, उसमें समायी होती हैं प्यार-अपनेपन की नदियां, बेवजह की हलचल नही होती, भावनाओं के तूफान खामोश रहते हैं हृदय में ------ निरुपमा मिश्रा " नीरू"

गहरा अंधेरा

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आता है सभी के जीवन में प्रेम,विश्वास, अपनेपन का सवेरा, लाता है जो अंधेरों में आत्मविश्वास की रोशनी, पर ये तभी तो होगा जब मन के द्वार बंद न हों हमारे, वरना धुंधलका घिरता ,बढ़ता जाता अंधेरा, जो लिपटा रहता है हमारे चारो तरफ सर्प की तरह, डसते रहते दिन के उजाले गहरा जाता गहरी रातों का अंधेरा -नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

थाह

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कौन है अपना कौन पराया थाह मिलेगी कहाँ जो सरल है उसे सहजता से राह मिलेगी कहाँ जब तक न पहचानेंगे नयन रंग इस संसार के सपन को साकार करने की सलाह मिलेगी कहाँ ----- निरुपमा मिश्रा " नीरू "

शीतल छाँव तुम

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जलते-तपते हुए जीवन में शीतल- मधुर छाँव हो तुम पलकों की पगडंडियों पर तो सपनों के गाँव हो तुम मैं सुखों की शाम बनी तुम आशाओं की भोर हुए मैं प्यासी धरती जैसी  तुम तो घटा घनघोर हुए मिल जाती चाहत को मंजिल मेरे वो लगाव हो तुम  जलते-तपते हुए जीवन... पलकों की पगडंडियों....  विह्वल- विभोर होकर जब तुमने पुकारा है मुझको अनुभूतियों ने दिल की तो फिर संवारा है मुझको उबारे उलझन से मुझे विश्वास की वो नाँव हो तुम जलते-तपते हुए जीवन.... पलकों की पगडंडियों... अतृप्त मन-जीवन है तो कभी मधुमास दिया कभी सराहे जगत यूं तो कभी परिहास किया नही पराजय कोई जग- शतरंज में वो दाँव हो तुम जलते-तपते हुए जीवन में शीतल- मधुर छाँव हो तुम पलकों की पगडंडियों पर तो सपनों के गाँव हो तुम ---- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

कैसै कह दे

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शुरुआत कहाँ से और आखिरी कहाँ कैसे कह दे कोई दरिया है ये कि समंदर कश्तियों को मालूम नही ---- निरुपमा मिश्रा "नीरू "

मौत

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ठहरे दर्द को लेकर तो हर पल पुकारा होगा तिल-तिल मर रही इंसानियत को धिक्कारा होगा जिंदगी तकलीफ देती रही उसे अंतिम साँस तक मौत ने भी आखिर खामोशी से मारा होगा ----- निरुपमा मिश्रा "न...

चाह

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अपनेपन की चाह अपने रिश्तों में रही दिल की बात दिल से हमने किश्तों में कही भावना की चाह है नही बात कमियों की हम भी तो इंसानों में फरिश्तों में नही ---- निरुपमा मिश्रा " नीरू "

उम्मीदें

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छोड़ो भी शिकायती जुमले , सब कुछ कह भी दो तो भी कुछ  न कुछ रह जाता, उम्मीदें सबकी कोई कहाँ पूरी कर पाता, प्यार-सम्मान- भरोसा ये एहसास जिंदा न रहे अगर तो इंसान भी जीते - जी मर जाता , घुटता रहता है हरदम टूटता और बिखर जाता,, ---- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

दर्द

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सिहर-सहम उठता ये ज़माना हर आँख रोई जिंदगी ने जब- जब भी अर्थी मौत की ढोई कहीं टूटे सपनें किसी के छूट गये अपने पाया इस दर्द को जिसने कब भूलता कोई --- निरुपमा मिश्रा " नीरू "

लौट आना प्रिये

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उगते हुए सूरज हो तुम अभी बहुत होगा वंदन- अभिनंदन , पर दर्प से दीप्ति तुम्हारी प्रसन्नता जब चरम पर होगी क्या देख सकोगे तुम किसी मन की पीड़ा , फिर जब तुम ढलने लगोगे होंगे द्वार बंद प्रशंसा के कौन समझेगा तुम्हारी पीड़ा , तब भी तुम्हारे सहारे हैं ये जो चाँद - सितारे घर आने की तुम्हारी राह देखेंगे कि लौट आना प्रिये जीवन के पथ पर द्वार खोले मिलेगा तुम्हें कोई अपना तुम्हारी रश्मियों में देखने को अपना सवेरा ---- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

जीवन की बगिया

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मैं सुखों की शाम बनूं तू आशाओं की भोर बने मैं रहूँ तेरी प्राणप्रिया तू साँसों की डोर बने जीवन की बगिया मेरी तुम्हीं संवारना सजन प्यासी धरती जैसी मैं हूँ तू घटा घनघोर बने ---- नीरु ( निरुपमा मििश्रा त्रिवेदी )

बंद कमरे

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अंधेरे बंद कमरे कोने में दुबके-से हैं दिन, जिन्हें नसीब नही होता मुँह देखना कभी रोशनी का, हर मकान की खिड़कियां ,दरवाजे बंद हैं इस डर से कि रास्ते का सूरज उनके अंधेरों का राज़ न जान ले, छुपाते एक दूसरे से ग़म और खुशी डरती है आने से होंठों पर हँसी, रोशनदान तक में स्वार्थ का पर्दा पड़ा, अब तो जो कभी - कभार आ जाया करती थीं हवायें आकर लौट जाती, पता नही कैसे जी लेती साँसें घुटन भरे बंद कमरों में , क्यों खो जाती वो ताकत जो सामना करती एक दूसरे का, समेटकर बिखरती रोशनी अपने दिनों के दामन भरकर अब जी लेते हैं हम अपनी साँसें खुली फिजाओं में ---- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी' 

प्रश्नचिन्ह

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तुम्हारी देहरी पर रखा दीपक प्रतीक्षा में रहा वर्षों तलक, कब दोगे विश्वास से भीगी स्नेह की बाती, एक दिन अचानक नेह के आशीष से भिगोई आँसुओं में बाती, अपनेपन की लौ में जिंदगी ल...

प्रतिफल

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अंधेरी रात की टहनी पर अटका चाँद सोचता है, क्यों आग उगलती किरणें सूरज की पहले से भी अधिक , बादल अपनी समय सीमा से इतर भटकते कहाँ पर, कहाँ वो सुबह -शाम चहचहाना चिड़ियों का, हरी-भरी ...

ख्वाबों में बुला लेना मुझे

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याद आये अगर ख्वाबों में बुला लेना मुझे खुशबू जैसी हूँ साँसों में बसा लेना मुझे रहे चाहत जब भी कुछ गुनगुनाने की रहे हसरत जब भी सब भूल जाने की गीत  के आँगन में सुरों से सजा लेना ...

वनिता

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ममता - प्यार मन में पिरोती हूँ, संवेदनायें भावनाएं हृदय में संजोती हूँ, सृजन -मानवता संहार - दानवता के आधार भी बनती हूँ, जीवन मुझसे ही पनपता और जीवंत रहता , कब मेरा होना व्यर्थ ...

छलके रंग हैं

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मनमीत मुस्काये , छलके रंग हैं होली में सभी के, बहके ढंग हैं लजाये रूपराशि,विकल सजन-नैन प्रीति-भाव पल्लवित,महके अंग हैं --- निरुपमा मिश्रा " नीरू "

फागुन

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धरती ने ओढी, चुनरिया प्रीत की। चलती हूँ मैं भी, डगरिया  मीत की।। मन के द्वारे रंग, फागुन भरने आये, लाज की देहरी भी, पाहुन लांघ जाये, देखूँ अब मैं भी, नजरिया रीत  की।। अब सभी यातनायें, जग की विस्मृत हुई , अब सभी कामनायें, प्रिय की अमृत हुई , रहती मन में , लहरिया संगीत की।। रंग रंगाऊं, प्रियतम-सुमन की लगन में, जग भूल जाऊँ , प्रेम-प्रियतम की जतन में, धुन सजाऊँगी, संवरिया गीत की।। चलती हूँ मैं भी, डगरिया मीत की।। --- नीरु ( निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी(

लोग

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कुछ लोग पहले प्रेमपत्र की तरह होते, बार - बार पढ़कर भी जी नही भरता संजोने की जुगत में रहता है मन, कुछ लोग रोशनी की तरह होते हैं वो साथ रहें तो अँधेरों में भी राह मिल जाती, कुछ लोग घर की तरह होते कितनी ही दूर क्यों न हों दिल उनकी पनाह में जाने को बेचैन  रहता, कुछ लोग जान से भी प्यारे लगते वो हँसकर जान भी माँग लें तो इंकार नही कर सकते , मगर कुछ लोग ऐसे भी होते  कि शब्द बर्बाद ही होंगे मौन ही काफी कुछ कहने की जरुरत ही क्या.,,,,,.,,,,, ------ नीरु 'निरुपमा मिश्रा  त्रिवेदी'