मन के बोल पर
जब जिंदगी
गहरे भाव संजोती है,
विह्वल होकर लेखनी
कहीं कोई
संवेदना पिरोती है,
तुम भी आ जाना
इसी गुलशन में
खुशियों को सजाना
है मुझे,
अभी तो अपनेआप को
तुझमें
पाना है मुझे
Monday, 27 April 2015
दर्द
सिहर-सहम उठता ये ज़माना हर आँख रोई
जिंदगी ने जब- जब भी अर्थी मौत की ढोई
कहीं टूटे सपनें किसी के छूट गये अपने
पाया इस दर्द को जिसने कब भूलता कोई
--- निरुपमा मिश्रा " नीरू "
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