अंधेरे बंद कमरे
कोने में दुबके-से हैं दिन,
जिन्हें नसीब नही होता
मुँह देखना कभी रोशनी का,
हर मकान की खिड़कियां ,दरवाजे बंद हैं
इस डर से कि रास्ते का सूरज उनके
अंधेरों का राज़ न जान ले,
छुपाते एक दूसरे से ग़म और खुशी
डरती है आने से होंठों पर हँसी,
रोशनदान तक में स्वार्थ का पर्दा पड़ा,
अब तो जो कभी - कभार
आ जाया करती थीं हवायें
आकर लौट जाती,
पता नही कैसे जी लेती साँसें
घुटन भरे बंद कमरों में ,
क्यों खो जाती वो ताकत
जो सामना करती एक दूसरे का,
समेटकर बिखरती रोशनी
अपने दिनों के दामन भरकर
अब जी लेते हैं
हम अपनी साँसें
खुली फिजाओं में
---- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'
मन के बोल पर जब जिंदगी गहरे भाव संजोती है, विह्वल होकर लेखनी कहीं कोई संवेदना पिरोती है, तुम भी आ जाना इसी गुलशन में खुशियों को सजाना है मुझे, अभी तो अपनेआप को तुझमें पाना है मुझे
Sunday, 29 March 2015
बंद कमरे
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कविता
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