फागुन

धरती ने ओढी, चुनरिया प्रीत की।
चलती हूँ मैं भी, डगरिया  मीत की।।

मन के द्वारे रंग, फागुन भरने आये,
लाज की देहरी भी, पाहुन लांघ जाये,
देखूँ अब मैं भी, नजरिया रीत  की।।

अब सभी यातनायें, जग की विस्मृत हुई ,
अब सभी कामनायें, प्रिय की अमृत हुई ,
रहती मन में , लहरिया संगीत की।।

रंग रंगाऊं, प्रियतम-सुमन की लगन में,
जग भूल जाऊँ , प्रेम-प्रियतम की जतन में,
धुन सजाऊँगी, संवरिया गीत की।।

चलती हूँ मैं भी, डगरिया मीत की।।
--- नीरु ( निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी(

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