प्रतिफल

अंधेरी रात की
टहनी पर अटका
चाँद
सोचता है,
क्यों आग उगलती
किरणें सूरज की
पहले से भी अधिक ,
बादल अपनी
समय सीमा से इतर
भटकते कहाँ पर,
कहाँ वो सुबह -शाम
चहचहाना
चिड़ियों का,
हरी-भरी धरती थी
अब वहीं
कितने उग आये जंगल
कंक्रीटों के,
जाल
एक अदृश्य
बिछा हुआ सा,
कहीं जब कभी
सुनाई देती है
बहते पानी की कलकल ,
प्रश्नावली सी ध्वनि
उत्तर -प्रत्युत्तर
बीते कल
आज
आने वाला कल,
मिलेगा क्या नही ?
कभी हमें अपने
कर्मों का प्रतिफल
---- निरुपमा मिश्रा "नीरू "

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