साथ चलती किसके कोई राह परछाई नही
कौन जानें मुश्किलें कब साथ में आई नही
दे गया कोई कली की आँख में सपने नये
आस में वो शाम तक यूँ ही तो मुरझाई नही
मीत हैं सुख के सभी कोई कभी दुःख में नही
भीड़ में रहते हुए क्या साथ तन्हाई नही
भूख ने छीना यहाँ ईमान भी इंसान का
शर्म आती है मगर मजबूर टिक पाई नही
बदलते मौसम कहाँ तुमको कहा हमने कभी
देखने को असलियत तो पास बीनाई नही
------ निरुपमा मिश्रा " नीरू"
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