Thursday, 5 June 2025

गंगा दशहरा 2025 पर विशेष

गंगा दशहरे के शुभ अवसर पर शुक्लपक्ष दशमी 5 जून 2025 को गंगा दशहरा मनाया जाएगा!! 
आप सभी को गंगा दशहरा की हार्दिक शुभकामनाएँ ।
 
गंगा में ही अस्थियां विसर्जित क्यों की जाती हैं ❓

पतित पावनी गंगा को देव नदी कहा जाता है क्योंकि शास्त्रों के अनुसार गंगा स्वर्ग से धरती पर आई है। 


गंगा नदी इतनी पवित्र है की प्रत्येक हिंदू की अंतिम इच्छा होती है उसकी अस्थियों का विसर्जन गंगा में ही किया जाए लेकिन यह अस्थियां जाती कहां हैं ?

इसका उत्तर तो वैज्ञानिक भी नहीं दे पाए क्योंकि असंख्य मात्रा में अस्थियों का विसर्जन करने के बाद भी गंगा जल पवित्र एवं पावन है। गंगा सागर तक खोज करने के बाद भी इस प्रश्न का पार नहीं पाया जा सका।

सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार मृत्यु के बाद आत्मा की शांति के लिए मृत व्यक्ति की अस्थि को गंगा में विसर्जन करना उत्तम माना गया है। 

जिस व्यक्ति का अंत समय गंगा के समीप आता है उसे मरणोपरांत मुक्ति मिलती है। इन बातों से गंगा के प्रति हिन्दूओं की आस्था तो स्वाभाविक है।

वैज्ञानिक दृष्टि से गंगा जल में पारा अर्थात (मर्करी) विद्यमान होता है जिससे हड्डियों में कैल्शियम और फोस्फोरस पानी में घुल जाता है। जो जलजन्तुओं के लिए एक पौष्टिक आहार है। वैज्ञानिक दृष्टि से हड्डियों में गंधक (सल्फर) विद्यमान होता है जो पारे के साथ मिलकर पारद का निर्माण होता है। इसके साथ-साथ यह दोनों मिलकर मरकरी सल्फाइड साल्ट का निर्माण करते हैं। हड्डियों में बचा शेष कैल्शियम, पानी को स्वच्छ रखने का काम करता है। 
धार्मिक दृष्टि से पारद शिव का प्रतीक है और गंधक शक्ति का प्रतीक है, सभी जीव अंततःशिव और शक्ति में ही विलीन हो जाते हैं।



आज गंगा दशहरा है, कुछ तथ्य गंगा के बारे में प्रस्तुत हैं,

गंगा अवतरण
गंगां वारि मनोहारि मुरारिचरणच्युतं
त्रिपुरारिशिरश्चारि पापहारि पुनातु मां
अर्थ : गंगाका जल , जो मनोहारी है, विष्णुके  श्रीचरणोंसे जिनका जन्म हुआ है, जो त्रिपुरारी की शीश पर विराजित हैं, जो पापहारिणी हैं , हे मां तू मुझे शुद्ध कर !

भौगोलिक स्थिति:
गंगा का उद्गम दक्षिणी हिमालय में तिब्बत सीमा के भारतीय हिस्से से होता है। गंगोत्री को गंगा का उद्गम माना गया है। गंगोत्री उत्तराखंड राज्य में स्थित गंगा का उद्गम स्थल है। सर्वप्रथम गंगा का अवतरण होने के कारण ही यह स्थान गंगोत्री कहलाया, किंतु वस्तुत: उनका उद्गम 18 मील और ऊपर श्रीमुख नामक पर्वत से है। वहां गोमुख के आकार का एक कुंड है जिसमें से गंगा की धारा फूटी है। 3,900 मीटर ऊंचा गोमुख गंगा का उद्गम स्थल है। इस गोमुख कुंड में पानी हिमालय के और भी ऊंचाई वाले स्थान से आता है।
हिमाचल के हिमालय से निकलकर यह नदी प्रारंभ में 3 धाराओं में बंटती है- मंदाकिनी, अलकनंदा और भगीरथी। देवप्रयाग में अलकनंदा और भगीरथी का संगम होने के बाद यह गंगा के रूप में दक्षिण हिमालय से ऋषिकेश के निकट बाहर आती है और हरिद्वार के बाद मैदानी इलाकों में प्रवेश करती है।
फिर यह नदी उत्तराखंड के बाद उत्तर प्रदेश से होती हुई यह बिहार में पहुंचती है और फिर पश्चिम बंगाल के हुगली पहुंचती है। बिहार से इसकी एक धारा बांग्लादेश में घुसकर ब्रह्मपुत्र नदी से मिल जाती है |  गंगासागर, जिसे आजकल बंगाल की खाड़ी कहा जाता है, में मिल जाती है। इस दौरान यह 2,300 किलोमीटर से ज्यादा का सफर तय करती है। इस बीच इसमें कई नदियां मिलती हैं जिसमें प्रमुख हैं- सरयू, यमुना, सोन, रामगंगा, गोमती, घाघरा, गंडक, बूढ़ी गंडक, कोसी, घुघरी, महानंदा, हुगली, पद्मा, दामोदर, रूपनारायण, ब्रह्मपुत्र और मेघना।

पौराणिक कथा:
गंगा अवतरण की जो कथा हम आज तक पढ़ते आये हैं, सुनते आये हैं वह विभिन्न पुराणों में एवं महाभारत में भी वर्णित है , यह कथा संक्षेप में यह है, :
गंगा नदी को भगीरथ ने स्वर्ग (हिमालय त्रिविष्टप) से धरती पर उतारा था। मान्यता है कि गंगा श्रीहरि विष्णु के चरणों से निकलकर भगवान शिव की जटाओं (शिवालिक की जटानुमा पहाड़ी) में आकर बसी गई थी। पौराणिक गाथाओं के अनुसार भगीरथी नदी गंगा की उस शाखा को कहते हैं, जो गढ़वाल (उत्तरप्रदेश) में गंगोत्री से निकलकर देवप्रयाग में अलकनंदा में मिल जाती है व गंगा का नाम प्राप्त करती है। ब्रह्मा से लगभग 23वीं पीढ़ी बाद और राम से लगभग 14वीं पीढ़ी पूर्व भगीरथ हुए। भगीरथ ने ही गंगा को पृथ्वी पर उतारा था। इससे पहले उनके पूर्वज सगर ने भारत में कई नदी और जलराशियों का निर्माण किया था। उन्हीं के कार्य को भगीरथ ने आगे बढ़ाया। पहले हिमालय के एक क्षेत्र विशेष को देवलोक कहा जाता था। राजा सागर ने खुद को अधिक शक्तिशाली बनाने के लिए अश्‍वमेध यज्ञ का आयोजन किया। इस खबर से देवराज इन्‍द्र को चिन्ता सताने लगी कि कहीं उनका सिंहासन न छिन जाए। इन्‍द्र ने यज्ञ के अश्‍व को चुराकर कपिल मुनि के आश्रम के एक पेड़ से बाँध दिया। जब सागर को अश्‍व नहीं मिला तो उसने अपने 60 हजार बेटों को उसकी खोज में भेजा। उन्‍हें कपिल मुनि के आश्रम में वह अश्‍व मिला। यह मानकर कि कपिल मुनि ने ही उनके घोड़े को चुराया है, वो पेड़ से घोड़े को छुड़ाते हुए शोर कर रहे थे। उनके शोरगुल से मुनि के ध्‍यान में बाधा उत्‍पन्‍न हो रही थी। और जब उन्‍हें ता चला कि ये यह सोच रहे हैं कि मैने घोड़ा चुराया है तो वे अत्‍यन्‍त क्रोधित हुए। उनकी क्रोधाग्नि वाली एक दृष्टि से ही वे सारे राख के ढेर में तब्‍दील हो गए।    
वे सारे अन्तिम संस्‍कारों की धार्मिक क्रिया के बिना ही राख में बदल गए थे। इसलिए वे प्रेत के रूप में भटकने लगे। उनके एकमात्र जीवित बचे भाई आयुष्‍मान ने कपिल मुनि से याचना की वे कोई ऐसा उपाय बताएँ जिससे उनके अन्तिम संस्‍कार की क्रियाएँ हो सकें ताकि वो प्रेत आत्‍मा से मुक्ति पाकर स्‍वर्ग में जगह पा सकें। मुनि ने कहा कि इनकी राख पर से गंगा प्रवाहित करने से इन्‍हें मुक्ति मिल जाएगी। गंगा को धरती पर लाने के लिए ब्रह्मा से प्रार्थना करनी होगी।         
कई पीढि़यों बाद सागर के कुल के भगीरथ ने हजारों सालों तक कठोर तपस्‍या की। तपस्‍या से प्रसन्‍न  होकर ब्रह्मा ने गंगा को धरती पर उतारने की भगीरथ की मनोकामना पूरी कर दी। गंगा बहुत ही उद्दंड और शक्तिशाली नदी थी। वे यह तय करके स्‍वर्ग से उतरीं कि वे अपने प्रचण्‍ड वेग से धरती पर उतरेंगी और रास्‍ते में आने वाली सभी चीजों को बहा देंगी। शिव को गंगा के इस इरादे का अन्‍दाजा था इसीलिए उन्‍होंने गंगा को अपनी जटाओं में कैद कर लिया।    
भागीरथ ने तब शिव को मनाया और फिर उन्‍होंने गंगा को धीरे-धीरे अपनी जटाओं से आजाद किया। और तब गंगा भगीरथी के नाम से धरती पर आईं। उन राख के ढेरों से गुजरते हुए गंगा ने जहनु मुनि के आश्रम को डुबो दिया। गुस्‍से में आकर मुनि ने गंगा को लील लिया। एक बार फिर भगीरथ को मुनि से गंगा को मुक्‍त करने हेतु प्रार्थना करनी पड़ी। इस तरह गंगा बाहर आईं और अब वो जाह्नवी कहलाईं। इस तरह से गंगा का धरती पर बहना शुरू हुआ और लोग अपने पाप धोने उसमें पवित्र डुबकी लगाने लगे।      

व्यवहारिक एवं वैज्ञानिक सन्दर्भ :
पौराणिक कथाओं का वास्तविकता से क्या सम्बन्ध हैं और क्या वे प्रमाणिक हैं, यह प्रश्न अक्सर आम आदमियों के मन में उठता है , अमूमन हम ये सोचते हैं की पौराणिक कथाएं गल्प मात्र हैं जो अविश्वसनीय होती हैं, कोई किसी से जन्म ले लेता है, कद्रू से १००० साँपों का जन्म, वनिता से गरुड़ का जन्म, गौ से गोकर्ण का जन्म, इत्यादि बातें जीव विज्ञान के विरुद्ध लगती हैं, परन्तु यह जानना जरुरी है की महाभारत में या पूराणों में जितनी भी कथाएं हैं वे समस्त वेदों को विस्तार देने के लिए बनाई गयी हैं जो कुछ तो बिम्बात्मक ढंग से वेद की बातों को पहुँचाने के लिए है कुछ भारत में जो घटित हुआ उसका इस प्रकार कथानक के रूप में दिया गया की लोग उसमे रूचि लें और जाने, उस समय कोई लिखित नहीं होता था, क्या तो श्रुति ग्रन्थ होते थे या स्मृति ग्रन्थ होते थे| लिपि का अविष्कार बहुत बाद में हुआ, उसके बाद से ग्रंथों का लीपी बद्ध होना प्रारंभ हुआ शायद ईसा से ६००-७०० वर्ष पूर्व ही लिपियाँ लिखी जाने लगी | पाश्चात्य इतिहासकारों के अनुसार प्रथम लिपि ईसा से १००० वर्ष पूर्व सेमेटिक में अस्तित्व में आई, भारत में प्रथम लिपि ब्राह्मी मानी गयी है जो की उनके अनुसार ईसा से ६०० वर्ष पूर्व अस्तित्व में आई, हम इसको स्वीकार भी कर लें तो यह मानना ही पड़ेगा की इसके पहले का इतिहास जो लिखित नहीं था वह था तो अवश्य, इसी क्रम में पौराणिक कथाएं रोचक कहानियों में परिवर्तित हो गयी, आज भी हम बच्चों को कोई बात कहनी होती है तो परियों की, जानवरों की कथाओं में परिवर्तित करके बताते हैं ताकि बच्चों की रूचि बनी रहे, ठीक वैसे ही पुरातन काल में जब कुछ लोग ही आचार्य थे वे जन जन तक उद्देश्यात्मक बातों को रुचिकर बनाने हेतु इस प्रकार कथा में गढ़ते थे |
आईये हम गंगा के अवतरण की बात करें, इसे पौराणिक दृष्टि से नही व्यवहारिक और वैज्ञानिक दृष्टि से देखें|
जब सृष्टि की उत्पत्ति हुई तब पूरा विश्व जल में डूबा था, यह बिग बेंग’ गोड पार्टिकल्स, या हजारों वर्ष पूर्व लिखे ऋगवेद के नाशदिकीय सूक्त में लिखा है | जब जल धीरे धीरे उतरा तब सर्वोच्च पर्वत माला हिमालय पर जल का निकास आरंभ हुआ, हिमगिरी के दोनों तरफ तब सबसे पहले सभ्यता जन्मी एक सभ्यता कहलाई आज के विज्ञानिकों ने नाम दिया सिन्धु घटी की सभ्यता दूसरी तरफ येलो रिवर की सभ्यता. जिसे चीनी सभ्यता भी कहते हैं. सिन्धु घटी की सभ्यता सरस्वती नदी और सिन्धु नदी के किनारे किनारे पनपने लगी, कालांतर में सरस्वती प्रकृतिजन्य कारणों से लुप्त होने लगी तब भारत के मैदानी क्षेत्र में जल की भीषण समस्या आ पड़ी, उस समय भारत के सम्राट थे सगर, उन्होंने जल के ढूँढने के प्रयास का अश्वमेघ यज्ञ सा कार्य किया, इस प्रयत्न में कपिल मुनि जैसे महात्मा ऋषि की नाराजगी भी मिली, इस प्रयत्न में उन्होंने पाया की हिमालय की उच्च पर्वत मालाओं पर जल का विपुल भंडार कोनिकल आकर में ग्लेशियर जिसे कहते हैं पड़ा है, अगर उस जल को मैदानी हिस्सों में लाया जाय तो जल की समस्त समस्या दूर हो जायगी, उस समय के  अभियंताओं से विमर्श कर योजना बनाई गयी और कैलाश के राजा शिव ( यहाँ बता दूँ की शिव किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं , यह एक पदवी है जैसे तिब्बती क्षेत्र में लामा होते हैं, उसी प्रकार सनातन वैदिक धर्म में कई पदवी नाम के रूप में प्रचलित हो गयी जैसे इंद्र, नारद, ब्रह्मा, शिव, व्यास, इत्यादि इत्यादि ) के पास वे योजना लेकर गए और उन्हें बताया  की भारत की रक्षा के लिए जल की कितनी आवश्यकता है और यह जल केवल उस हिम के रूप में संग्रहित या जल समूह के अन्दर निचले हिस्से में छिद्र कर ही निकला जा सकता है जो की उनके प्रदेश में पड़ता है , उनको यह भी बताया गया की छिद्रोप्रांत जल इस वेग से निकलेगा की सब कुछ जलआप्लावित हो सकता है अतः उन्हें अपने वन क्षेत्र को सघन कर उस वेग को उसमे अटकाना होगा ताकि यह जब निचे उतारे तो प्रलय कारी न हो, (पौराणिक कथा में इसे कहा गया की शिव जी ने अपनी जटाओं में प्रवाह को समां लिया) उसके बाद जब जल सामान्य गति से नीचे उतरेगा तब वहां से प्राकृतिक अवस्था देखते हुए जल के मार्ग को एक नहर के रूप में उस समय की बसी सभ्यता के मध्य से ले जाते हुए समुद्र में प्रवाहित करने की योजना बनाई गयी, इस नहर बनाने के उद्यम में ६० हज़ार कर्मियों की मृत्यु हुई , चूँकि राजा के पुत्र  होती है उनकी प्रजा जो कर्मचारी भी हैं ; “प्रजा स्यात् सन्ततौ जने” ऐसा शब्दकोश में बताया है । अतः कहा गया की सागर के ६०००० पुत्रों की मृत्यु हुई, यह जल को ला कर समुद्र तक छोड़ना बहुत दुरूह कार्य था, उस समय जब स्वचालित मशीने भी नहीं थी, अतः इस कार्य में सम्राट सगर ने प्रारंभ किया उनके पुत्र अंशुमान ने आगे बढाया, जब उनके पुत्र भागीरथ आये तब उन्होंने इस कार्य को पूर्ण करने का निश्चय किया पौराणिक कथा में कहा गया है की भागीरथ ने एक पांव पर खड़े होकर हजारों साल तपस्या की इसको शाब्दिक रूप में न लेकर सांकेतिक रूप में लें तो यह कह सकते हैं की भागीरथ ने इतनी मेहनत की कि उन्हें जरा भी समय खड़े रहने का नही मिला बस वे निरंतर एक पाँव पर  थे अर्थार्थ गतिमान थे, उन्होंने नहर पूरी होने के बाद कैलाश नरेश शिव से जैसा ऊपर बताया गया उस प्रकार हिम क्षेत्र के ग्लेशियर को तोड़ जल प्रवाह बाहर निकलवाया उस वेग को रोकने के लिए इन तीन पीढ़ियों के क्रम में इतने पेड़ पौधे हो गए थे की प्रवाह के वेग को वे नियंत्रित कर सके, चूँकि जल ग्लेशियर का शुद्ध जल था और उन पहाड़ों में इतनी मात्रा में खनिज थे की जल कभी प्रदूषित नहीं हो सकता था और ऊपर से जल प्रवाह को संयमित करने के लिए वनस्पति औषधियों के वृक्ष थे जिनके संपर्क में जल परिमार्जित हो जाता था इसीलिए गंगा जल में कभी कीड़े नहीं पड़ते और स्वास्थ्य के लिए इतना लाभकारी माना गया की इसे अमृत कहा गया | इस तरह सागर से प्रारंभ यह प्रोजेक्ट अंत में भागीरथ प्रयास से पूरा हुआ और गंगासागर में जब यह जल पहुंचा तो ऋषि कपिल भी प्रसन्न हो इस कार्य में आहूत सभी लोगों को श्रद्धांजली दे अपने को उपकृत किया | तो यह है व्यवहारिक गंगा अवतरण की कथा जिसे रोचकता देने के लिए संकेतों में बिम्बों में धार्मिक जामा पहना लोगों तक पहुँचाया गया क्यूंकि भारत मनस स्थिति है ऐसी ही की धर्म भीरु होने से वे बाते अविलम्ब समझ लेते है| आईये कुछ रूपक शब्द को समझाते हैं जो पौराणिक कथा में वर्णित हैं;
रूपक शब्द युग्म
स्वर्ग - त्रिविष्टप् (तिब्बत)
(साठ हज़ार) पुत्र - (साठ हज़ार) प्रजा
(भगीरथ की) तपस्या - (भगीरथ की सतत) उद्यमशीलता
शंकर की जटा - हिमालय की पहाड़ियां
कपिल मुनि - कपिल नक्षत्र
(कपिल मुनि का) शाप - (कपिल नक्षत्र का) प्रभाव
साठ हज़ार पुत्र जलकर भस्म - साठ हज़ार प्रजा की मृत्यु
पिछले एक सहस्त्र वर्षों की पराधीनता के कारण हम पौराणिक कथाओं के भाव को नहीं समझ पाए । समय की मांग है कि हम इन कथाओं से सही अर्थ को समझें और भगीरथ के ही तरह अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार समाज कल्याण के लिए सतत् लगे रहें ।

*कुछ गंगा के बारे में मान्यताएं और उनका वैज्ञानिक आधार:*
गंगा की शुचिता हेतु धार्मिक आधार पर कई नियम भी बनाये गए ताकि यह अमृत सलिला कभी प्रदूषित न हो, जैसे घाटों की निरंतर सफाई, इसमें मल मूत्र त्यागने की मनाई, कुछ कार्य गंगा में ही किये जाते हैं जैसे अस्थि विसर्जन.. इसके पीछे भी बहुत बड़ा वैज्ञानिक आधार माना गया है, अस्थियों में कैल्शियम होता है जो भूमि को उर्वरक बनता है, जब गंगा के जल के साथ यह अस्थियाँ तट की भूमि पर आती है तो यह भूमि उर्वरक हो जाती है इसी लिए अस्थि विसर्जन हरिद्वार या प्रयाग में उचित माना गे है ताकि यहाँ से यह नीचे के पुरे कृषि क्षेत्र में गंगा जल सिंचित करती है और सही में बाद की भूमि बहुत उर्वरक होती है| 
वैज्ञानिक संभावनाओं के अनुसार गंगाजल में पारा अर्थात मर्करी विद्यमान होता है जिससे हड्डियों में कैल्शियम और फॉस्फोरस पानी में घुल जाता है, जो जल-जंतुओं के लिए एक पौष्टिक आहार है। वैज्ञानिक दृष्टि से हड्डियों में गंधक (सल्फर) विद्यमान होता है, जो पारे के साथ मिलकर पारद का निर्माण करता है, इसके साथ-साथ ये दोनों मिलकर मरकरी सल्फाइड सॉल्ट का निर्माण करते हैं। हड्डि यों में बचा शेष कैल्शियम पानी को स्वच्छ रखने का काम करता है। धार्मिक दृष्टि से पारद शिव का प्रतीक है और गंधक शक्ति का प्रतीक है। सभी जीव अंतत: शिव और शक्ति में ही विलीन हो जाते हैं। सचमुच पवित्र है गंगा का जल : इसका वैज्ञानिक आधार सिद्ध हुए वर्षों बीत गए। वैज्ञानिकों अनुसार नदी के जल में मौजूद बैक्टीरियोफेज नामक जीवाणु गंगाजल में मौजूद हानिकारक सूक्ष्म जीवों को जीवित नहीं रहने देते अर्थात ये ऐसे जीवाणु हैं, जो गंदगी और बीमारी फैलाने वाले जीवाणुओं को नष्ट कर देते हैं। इसके कारण ही गंगा का जल नहीं सड़ता है।
भारत की सबसे महत्वपूर्ण नदी गंगा का धार्मिक महत्व बहुत अधिक है। इसका जल घर में शीशी या प्लास्टिक के डिब्बे आदि में भरकर रख दें तो बरसों तक खराब नहीं होता है और कई तरह के पूजा-पाठ में इसका उपयोग किया जाता है। ऐसी आम धारणा है कि मरते समय व्यक्ति को यह जल पिला दिया जाए तो ‍उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।
गंगा जल में प्राणवायु की प्रचुरता बनाए रखने की अदभुत क्षमता है। इस कारण पानी से हैजा और पेचिश जैसी बीमारियों का खतरा बहुत ही कम हो जाता है, लेकिन अब वह बात नहीं रही।

कुछ तथ्य गंगा से सम्बंधित आईये जानते हैं:

यह नदी दक्षिणी हिमालय के गंगोत्री ग्‍लेसियर से निकलती है।
गंगा के मुहाने पर बना सुन्दरबन डेल्‍टा दुनिया का सबसे बड़ा डेल्‍टा है।
फरक्‍का और हरिद्वार दो ऐसी जगह हैं जहाँ गंगा पर सबसे बड़े बाँध बने हैं।
ब्रह्मपुत्र के साथ-साथ गंगा नदी तंत्र गंगा डाल्फिन का निवास है। यह दुनिया भर में पाई जाने वाली मीठे पानी की चार मात्र डाल्फिन प्रजातियों में से एक है। ये विलक्षण हैं क्‍योंकि इनकी आँखों में लैंस नहीं होते और ये अंधी होती हैं।
गंगा अत्‍यंत प्रदूषित नदी है और मानवीय हस्‍तक्षेप के चलते यह प्रदूषण इसके उद्गम से ही शुरू हो जाता है।
गंगा में ऑक्‍सीजन धारण करने की अद्भुत क्षमता है और इसके जरिए बैक्‍टीरिया को मारकर यह खुद को साफ करती रहती है।
अत्याधिक प्रदूषित गंगा को साफ करने के लिए कई प्रस्ताव बनाए गए लेकिन कोई खास प्रगति नहीं हो सकी।
गंगा के प्रवाह में ऐसे भी कई स्‍थान हैं जहाँ पानी इतना साफ नहीं है कि वहाँ स्‍नान किया जाए। इसके बाद भी इसे पवित्र नदी माना जाता है और लाखों लोग रोज इसमें स्‍नान करते हैं।
कुम्भ 2025 में गङ्गा के कई तथ्य प्रकट हुए जैसे 40 दिनों में 70 करोड़ लोगों ने स्नान किया उसके पश्चात भी गङ्गा का स्वरूप वही रहा जो कुम्भ के पूर्व था। कुम्भ में वैज्ञानिकों ने पाया कि गङ्गा की शुद्धता स्नान योग्य थी।

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