मैं सुखों की शाम बनूं तू आशाओं की भोर बने
मैं रहूँ तेरी प्राणप्रिया तू साँसों की डोर बने
जीवन की बगिया मेरी तुम्हीं संवारना सजन
प्यासी धरती जैसी मैं हूँ तू घटा घनघोर बने
---- नीरु ( निरुपमा मििश्रा त्रिवेदी )
मन के बोल पर जब जिंदगी गहरे भाव संजोती है, विह्वल होकर लेखनी कहीं कोई संवेदना पिरोती है, तुम भी आ जाना इसी गुलशन में खुशियों को सजाना है मुझे, अभी तो अपनेआप को तुझमें पाना है मुझे
Tuesday, 31 March 2015
जीवन की बगिया
Sunday, 29 March 2015
बंद कमरे
अंधेरे बंद कमरे
कोने में दुबके-से हैं दिन,
जिन्हें नसीब नही होता
मुँह देखना कभी रोशनी का,
हर मकान की खिड़कियां ,दरवाजे बंद हैं
इस डर से कि रास्ते का सूरज उनके
अंधेरों का राज़ न जान ले,
छुपाते एक दूसरे से ग़म और खुशी
डरती है आने से होंठों पर हँसी,
रोशनदान तक में स्वार्थ का पर्दा पड़ा,
अब तो जो कभी - कभार
आ जाया करती थीं हवायें
आकर लौट जाती,
पता नही कैसे जी लेती साँसें
घुटन भरे बंद कमरों में ,
क्यों खो जाती वो ताकत
जो सामना करती एक दूसरे का,
समेटकर बिखरती रोशनी
अपने दिनों के दामन भरकर
अब जी लेते हैं
हम अपनी साँसें
खुली फिजाओं में
---- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'
Sunday, 22 March 2015
प्रश्नचिन्ह
तुम्हारी देहरी
पर रखा दीपक
प्रतीक्षा में रहा
वर्षों तलक,
कब दोगे
विश्वास से भीगी
स्नेह की बाती,
एक दिन
अचानक
नेह के आशीष से
भिगोई
आँसुओं में बाती,
अपनेपन की लौ
में जिंदगी लगी
जगमगाती,
दमकते रुप को
उसके देख तुम
उसे अपना बताने लगे,
उसकी सफलता में
अपने योगदान
गिनाने लगे,
फिर से दीपक
के मन में
कहीं अंधेरा पलने लगा
तुम्हारा ये प्रेम
उसे
प्रश्नचिन्ह बनकर
छलने लगा,
----- निरुपमा मिश्रा "नीरू "
Wednesday, 18 March 2015
प्रतिफल
अंधेरी रात की
टहनी पर अटका
चाँद
सोचता है,
क्यों आग उगलती
किरणें सूरज की
पहले से भी अधिक ,
बादल अपनी
समय सीमा से इतर
भटकते कहाँ पर,
कहाँ वो सुबह -शाम
चहचहाना
चिड़ियों का,
हरी-भरी धरती थी
अब वहीं
कितने उग आये जंगल
कंक्रीटों के,
जाल
एक अदृश्य
बिछा हुआ सा,
कहीं जब कभी
सुनाई देती है
बहते पानी की कलकल ,
प्रश्नावली सी ध्वनि
उत्तर -प्रत्युत्तर
बीते कल
आज
आने वाला कल,
मिलेगा क्या नही ?
कभी हमें अपने
कर्मों का प्रतिफल
---- निरुपमा मिश्रा "नीरू "
Wednesday, 11 March 2015
ख्वाबों में बुला लेना मुझे
याद आये अगर ख्वाबों में बुला लेना मुझे
खुशबू जैसी हूँ साँसों में बसा लेना मुझे
रहे चाहत जब भी कुछ गुनगुनाने की
रहे हसरत जब भी सब भूल जाने की
गीत के आँगन में सुरों से सजा लेना मुझे
तन्हा-तन्हा जब भी जिंदगानी लगे
महफिलें तुम्हें जब भी बेगानी लगे
अपनी यादों के गुलशन से चुरा लेना मुझे
मन से मन के अपने कभी न दूरी हो
मेरा दिल,धड़कनें हर साँस तेरी हो
तन्हा छोड़े जमाना तो अपना लेना मुझे
उदास लम्हों में कहीं खुशी खो जाये
सहमी-सहमी कभी जिंदगी हो जाये
भेज कर अपना मन-डाकिया बुला लेना मुझे
प्यार दो-चार बातों की सौगात नही
दिन के साथ वहीं रहती कब रात नही
वफाओं-इरादों से तुम आजमा लेना मुझे
---- निरुपमा मिश्रा "नीरू "
Saturday, 7 March 2015
वनिता
ममता - प्यार
मन में
पिरोती हूँ,
संवेदनायें
भावनाएं
हृदय में संजोती हूँ,
सृजन -मानवता
संहार - दानवता
के आधार भी
बनती हूँ,
जीवन मुझसे ही
पनपता और
जीवंत रहता ,
कब मेरा होना
व्यर्थ रहता,
मैं हूँ वनिता
संस्कृति - संस्कार
संसार के विस्तार
की धुरी ,
जगत में व्याप्त
निराकार की हूँ
साकार -सजल
माधुरी
---- निरुपमा मिश्रा "नीरू "
Thursday, 5 March 2015
छलके रंग हैं
मनमीत मुस्काये , छलके रंग हैं
होली में सभी के, बहके ढंग हैं
लजाये रूपराशि,विकल सजन-नैन
प्रीति-भाव पल्लवित,महके अंग हैं
--- निरुपमा मिश्रा " नीरू "
फागुन
धरती ने ओढी, चुनरिया प्रीत की।
चलती हूँ मैं भी, डगरिया मीत की।।
मन के द्वारे रंग, फागुन भरने आये,
लाज की देहरी भी, पाहुन लांघ जाये,
देखूँ अब मैं भी, नजरिया रीत की।।
अब सभी यातनायें, जग की विस्मृत हुई ,
अब सभी कामनायें, प्रिय की अमृत हुई ,
रहती मन में , लहरिया संगीत की।।
रंग रंगाऊं, प्रियतम-सुमन की लगन में,
जग भूल जाऊँ , प्रेम-प्रियतम की जतन में,
धुन सजाऊँगी, संवरिया गीत की।।
चलती हूँ मैं भी, डगरिया मीत की।।
--- नीरु ( निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी(
Tuesday, 3 March 2015
लोग
कुछ लोग पहले प्रेमपत्र की
तरह होते,
बार - बार पढ़कर भी जी नही भरता
संजोने की जुगत में रहता है मन,
कुछ लोग रोशनी की तरह
होते हैं वो साथ रहें तो
अँधेरों में भी राह मिल जाती,
कुछ लोग घर की तरह होते
कितनी ही दूर क्यों न हों
दिल उनकी पनाह में
जाने को बेचैन रहता,
कुछ लोग जान से भी प्यारे
लगते
वो हँसकर जान भी माँग लें तो
इंकार नही कर सकते ,
मगर
कुछ लोग ऐसे भी होते
कि शब्द बर्बाद ही होंगे
मौन ही काफी
कुछ कहने की जरुरत ही क्या.,,,,,.,,,,,
------ नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'
स्मृति - आँगन
बूँद - बूँद से प्रीति गागर- घन भरे
बेचैन हैं मन - भाव नित नयन झरे
पीड़ा के बादल ये घनेरे सखी
सूखे वो घाव क्यों स्मृति - आँगन हरे
---- निरुपमा मिश्रा " नीरू "
Sunday, 1 March 2015
मन का उजाला
युग - युग से तुम्हें पाने की प्रतीक्षा
में, मैं अंधेरों में
चल पड़ती हूँ,
स्याह अंधेरों में दिखते
चाँद - सितारे तब महसूस करती
मैं कि चाँद -सितारों में रोशनी
तुमसे ही,
मेरी साँसों के सितार
पर जीवन - रागिनी
तुमसे ही,
फैल जाता है
मेरे चारों तरफ
मेरे मन का उजाला ,
और मैं तुम्हें आत्मसात
कर लेती ,
तुम्हें पा जाती,
--- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'