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Showing posts from March, 2015

जीवन की बगिया

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मैं सुखों की शाम बनूं तू आशाओं की भोर बने मैं रहूँ तेरी प्राणप्रिया तू साँसों की डोर बने जीवन की बगिया मेरी तुम्हीं संवारना सजन प्यासी धरती जैसी मैं हूँ तू घटा घनघोर बने ---- नीरु ( निरुपमा मििश्रा त्रिवेदी )

बंद कमरे

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अंधेरे बंद कमरे कोने में दुबके-से हैं दिन, जिन्हें नसीब नही होता मुँह देखना कभी रोशनी का, हर मकान की खिड़कियां ,दरवाजे बंद हैं इस डर से कि रास्ते का सूरज उनके अंधेरों का राज़ न जान ले, छुपाते एक दूसरे से ग़म और खुशी डरती है आने से होंठों पर हँसी, रोशनदान तक में स्वार्थ का पर्दा पड़ा, अब तो जो कभी - कभार आ जाया करती थीं हवायें आकर लौट जाती, पता नही कैसे जी लेती साँसें घुटन भरे बंद कमरों में , क्यों खो जाती वो ताकत जो सामना करती एक दूसरे का, समेटकर बिखरती रोशनी अपने दिनों के दामन भरकर अब जी लेते हैं हम अपनी साँसें खुली फिजाओं में ---- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी' 

प्रश्नचिन्ह

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तुम्हारी देहरी पर रखा दीपक प्रतीक्षा में रहा वर्षों तलक, कब दोगे विश्वास से भीगी स्नेह की बाती, एक दिन अचानक नेह के आशीष से भिगोई आँसुओं में बाती, अपनेपन की लौ में जिंदगी ल...

प्रतिफल

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अंधेरी रात की टहनी पर अटका चाँद सोचता है, क्यों आग उगलती किरणें सूरज की पहले से भी अधिक , बादल अपनी समय सीमा से इतर भटकते कहाँ पर, कहाँ वो सुबह -शाम चहचहाना चिड़ियों का, हरी-भरी ...

ख्वाबों में बुला लेना मुझे

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याद आये अगर ख्वाबों में बुला लेना मुझे खुशबू जैसी हूँ साँसों में बसा लेना मुझे रहे चाहत जब भी कुछ गुनगुनाने की रहे हसरत जब भी सब भूल जाने की गीत  के आँगन में सुरों से सजा लेना ...

वनिता

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ममता - प्यार मन में पिरोती हूँ, संवेदनायें भावनाएं हृदय में संजोती हूँ, सृजन -मानवता संहार - दानवता के आधार भी बनती हूँ, जीवन मुझसे ही पनपता और जीवंत रहता , कब मेरा होना व्यर्थ ...

छलके रंग हैं

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मनमीत मुस्काये , छलके रंग हैं होली में सभी के, बहके ढंग हैं लजाये रूपराशि,विकल सजन-नैन प्रीति-भाव पल्लवित,महके अंग हैं --- निरुपमा मिश्रा " नीरू "

फागुन

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धरती ने ओढी, चुनरिया प्रीत की। चलती हूँ मैं भी, डगरिया  मीत की।। मन के द्वारे रंग, फागुन भरने आये, लाज की देहरी भी, पाहुन लांघ जाये, देखूँ अब मैं भी, नजरिया रीत  की।। अब सभी यातनायें, जग की विस्मृत हुई , अब सभी कामनायें, प्रिय की अमृत हुई , रहती मन में , लहरिया संगीत की।। रंग रंगाऊं, प्रियतम-सुमन की लगन में, जग भूल जाऊँ , प्रेम-प्रियतम की जतन में, धुन सजाऊँगी, संवरिया गीत की।। चलती हूँ मैं भी, डगरिया मीत की।। --- नीरु ( निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी(

लोग

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कुछ लोग पहले प्रेमपत्र की तरह होते, बार - बार पढ़कर भी जी नही भरता संजोने की जुगत में रहता है मन, कुछ लोग रोशनी की तरह होते हैं वो साथ रहें तो अँधेरों में भी राह मिल जाती, कुछ लोग घर की तरह होते कितनी ही दूर क्यों न हों दिल उनकी पनाह में जाने को बेचैन  रहता, कुछ लोग जान से भी प्यारे लगते वो हँसकर जान भी माँग लें तो इंकार नही कर सकते , मगर कुछ लोग ऐसे भी होते  कि शब्द बर्बाद ही होंगे मौन ही काफी कुछ कहने की जरुरत ही क्या.,,,,,.,,,,, ------ नीरु 'निरुपमा मिश्रा  त्रिवेदी' 

स्मृति - आँगन

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बूँद - बूँद से प्रीति गागर- घन भरे बेचैन हैं मन - भाव नित नयन झरे पीड़ा के बादल ये घनेरे सखी सूखे वो घाव क्यों स्मृति - आँगन हरे ---- निरुपमा मिश्रा " नीरू "

मन का उजाला

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युग - युग से तुम्हें पाने की प्रतीक्षा में, मैं अंधेरों में चल पड़ती हूँ, स्याह अंधेरों में दिखते चाँद - सितारे तब महसूस करती  मैं कि चाँद -सितारों में रोशनी तुमसे ही, मेरी साँसों के सितार पर जीवन - रागिनी तुमसे ही, फैल जाता है मेरे चारों तरफ मेरे मन का उजाला , और मैं तुम्हें आत्मसात कर लेती , तुम्हें पा जाती, --- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'