Tuesday, 18 June 2024

बाग के झूले कहाँ है खो गई पुरवाइयां

बाग के झूले कहाँ हैं खो गई पुरवाइयां।
याद आते हैं बगीचे और वो अमराइयां ।

खो गये हैं मायने होने के अपने आप के,
अब नही मिलती वफायें अब कहाँ सच्चाइयां ।

मुद्दतों से आस में तड़पा किया है ये चमन,
फूल बगिया में खिलेंगे और होंगी तितलियां ।

एकतरफा फैसला होता नही है कारगर,
मामला दोनों तरफ का देख लेते अर्जियां ।

दोष सारे दूसरों के और हम निर्दोष हैं, 
इस तरह की सोच ने रिश्तों में दी हैं दूरियां ।

दूर होकर भी हमारी. रूह से पैवस्त है,
दे रही मन को सुकूं अपनी यही नजदीकियां ।

देख मौसम का बदलना तिलमिलाये लोग हैं, 
हो रहा एहसास अब ये क्या हुई हैं गल्तियां ।

Saturday, 15 June 2024

बात करने का बहाना चाहते हैं...

 फिर मुझे वो आजमाना चाहते हैं ।
बात करने का बहाना चाहते हैं ।

चंद लम्हों में कहाँ ये खत्म होगी,
बात दिल की वो सुनाना चाहते हैं ।

हम इशारे भी समझ लेते हैं उनके,
और वो होठों से जताना  चाहते हैं ।

ख्वाहिशें भी आग का दरिया बनी हैं, 
तैर  करके   पार  जाना  चाहते  हैं ।

खुश हुई ये शाम भी मिलकर किसी से,
शब  सितारे  गुनगुनाना   चाहते हैं ।
निरुपमा मिश्रा 'नीरू' 

Thursday, 13 June 2024

कभी ठहरता ही नही


कभी ठहरता ही नही, मन में एक विचार।
मन के इस भटकाव से, तन भी है बीमार।।

ताकत दौलत का नशा, अजब लगाये रोग।
इक दूजे की होड़ में , करें दिखावा लोग।।

अपने मतलब की यहाँ, सबको होती चाह।
अपना ही गुणगान है,कब किसकी परवाह।।

सच्ची बातों पर यहां, पल में जाते रूठ।।
सच उन्हें तीखा लगे,जिनको भाये झूठ।।

तपन द्वेष की बढ़ चली,नेह नीर की आस।
तन पर छाया धूप की,मन धरती की प्यास।।
निरुपमा मिश्रा 'नीरू' 

Sunday, 9 June 2024

कितनी बातें लिख डाली

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 लिखते लिखते कितनी बातें लिख डाली ।
 गुमसुम आंखों में बरसातें लिख डाली ।

कुछ बातें तो लिखना भी आसान नही,
लेकिन जीत की जिद में मातें लिख डाली।

दिन भर सूरज था अपनी परछाई थी,
तन्हा बीती कितनी रातें लिख डाली । 

मुश्किल है मुस्कान सजाना होठों पर, 
सहनी हैं कितनी आघातें लिख डाली ।

गर्दिश में रस्ते खो जायें अफसोस नही,
हमको हासिल जो सौगातें लिख डाली ।

अफसाने लिखने वाले भी क्या जाने, 
इसकी उसकी सबकी बातें लिख डाली ।

बाहर से यूं तो सब अपने लगते हैं, 
मन में लेकिन कितनी घातें लिख डाली ।
निरुपमा मिश्रा 'नीरू' 

Monday, 3 June 2024

कोई सैलाब दफ़्न दिल में तेरे

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कोई   रिश्ता   यक़ीन  जोड़ा जाये ।
गुल  किसी  शाख़  से न तोड़ा जाये।

उसको फु़रसत  नही  है अपने ग़म से,
ध्यान उसका कहीं और भी मोड़ा जाये ।

ज़िंदगी   रेस   की   तरह  लगती  है ,
साथ किसको लें किसको छोड़ा जाये ।


ख़ाक   हो   दिल   लगाव  छूटे अगर ,
सबसे    पहले   गु़रूर   छोड़ा   जाये ।

एक   सैलाब   दफ़्न   दिल   में   तेरे,
लफ्ज़  की  शक्ल  में  निचोड़ा  जाये।

पेंड़ धरती पर

ये डेरे पक्षियों के पेंड़ धरती पर ।
दे राहत गर्मियों में पेंड़ धरती पर।

बुलाकर बारिशों को इस ज़मीं पर,
सहेजेंगे नमी को पेंड़ धरती पर।

ये देते प्राणवायु उपहार जीवन का,
बचायेंगे ये सांसें पेंड़ धरती पर ।

ज़हर घुलता हवा में बांझ धरती है,
पुकारे जिंदगी को पेंड़ धरती पर।

लगाकर पेंड़ गुलशन ताप होगा कम,
निखारेंगे ये दुनिया पेंड़ धरती पर।