मन के बोल पर
जब जिंदगी
गहरे भाव संजोती है,
विह्वल होकर लेखनी
कहीं कोई
संवेदना पिरोती है,
तुम भी आ जाना
इसी गुलशन में
खुशियों को सजाना
है मुझे,
अभी तो अपनेआप को
तुझमें
पाना है मुझे
Thursday, 19 February 2015
आशा
सुख-शांति की आशा में उम्र की सीढ़ियाँ चढ़ते गये
हर साँस हम नया सबक सीखते पीढ़ियां गढ़ते गये
मन-वचन-कर्म की शुचिता कब मिले दुनिया के चलन में
भेद-छल-दंभ के रिश्तों की बस बेडियाँ जड़ते गये
---- निरुपमा मिश्रा "नीरू"
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