मैं जब भी ढलका
किसी मासूम की आँखों से
तो न जाने कितने
सपने ,
बचपन की शामें
जो सुलगते रहे
भूख-अभावों की आग से
मेरे अस्तित्व पर हँसते ,
मैं चुपचाप आँखों से निकल
खोजता अपने मायने ,
बेबस माँ की निगाहें
छलकते आँसुओं में
बयान करती हैं
मन में छिपे दर्द को,
पिता की आँखों से
लुढ़कता मैं झुर्रियों में
पढ़ता हूँ
अनगिनत - अनकही बातें ,
युवा निगाहें
जो भटक जाती हैं
बार- बार पहचानी
राहों पर तो अचानक
कोरों में टपकने को
बेताब सपने
मेरी ओट में छिप जाते,
अनकही तकलीफें
असहाय जिंदगी
जब बहाती सहमी रातों में
चुपचाप
आँसू ,
तब मैं सोचता हूँ
काश मैं भी बहा सकता
आँसू ,
जब शब्द नही मिलते
आँसू अर्थ समझाते हैं
लेकिन मैं कहाँ से लाऊँ
आँसू ,
मैं हूँ स्वयं
आँसू
------ निरुपमा मिश्रा " नीरु "
मन के बोल पर जब जिंदगी गहरे भाव संजोती है, विह्वल होकर लेखनी कहीं कोई संवेदना पिरोती है, तुम भी आ जाना इसी गुलशन में खुशियों को सजाना है मुझे, अभी तो अपनेआप को तुझमें पाना है मुझे
Sunday, 1 February 2015
आँसू
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कविता
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