रावण कौन ❓️

रावण कौन ? 

बाल्मीकि रामायण में रावण का चरित्र एवं घटनाक्रमों का एक गूढ़ अध्यात्मिक रहस्य भी है, जिसमें रावण के इस राक्षस स्वरूप का वर्णन नही किया गया है।


 रावण त्रेता युग का एक विशिष्ट ऐतिहासिक व्यक्तित्व रहा है वह रक्ष संस्कृति के रक्ष धर्म का पुनउद्धारक एवं प्रवर्तक रहा है, रक्षसंस्कृति के इतिहास और संस्कृति से रावण के संबंध के बारे में जानना आवश्यक है। 

उस काल में विश्व में दो संस्कृतियाँ मुख्य रूप से विकसित हो रही थी इनमें से एक वैदिक संस्कृति थी दूसरी संभू संस्कृति थी वैदिक संस्कृति आक्रमणकारी संस्कृति थी (आर्यसंस्कृति) और वह सपाट मैदानों की संस्कृति थी जो नदियों के तटों पर विकसित हो रही थी यह कृषि प्रधान संस्कृति थी, जिस में पशुपालन,  गृह उद्योग का व्यवसाय होता था। 



इनमें व्यवस्थित पारिवारिक सामाजिक ढांचा था और इसका प्रसार दूर-दूर तक था इनके पास उन्नत किस्म का विज्ञान था जो इस प्रकृति के उर्जा जगत से संबंधित था। इनके कुल नायक इन्द्र व उपेन्द्र (विष्णु) थे।



 जिसका संबंध इनके यज्ञविधान से था। जिसे यह ब्रह्मविद्या कहते थे इनके विवरण अत्यंत गोपनीय रखे जाते थे। इस विज्ञान के सूत्रों पर ही इनके क्रियाएं देवता और यज्ञ आधारित है ये देवताओं की शक्तियों को विभिन्न यज्ञो के माध्यम से प्राप्त करते थे।

ब्रह्मविद्या के सूत्रों पर इन्होंने कई प्रकार के अस्त्र-शस्त्र विकसित कर रखे थे यह अपने कुल नायक को भी (वेदों मे वर्णित उपेन्द्र) विष्णु के नाम से संबोधित ही करते थे। संभूसंस्कृति भी इनसे बहुत प्राचीन समय से विकसित थी। यह संस्कृति पहाड़ों एवं जंगलों गुफाओं में रह रही थी यह जंगल के फल फूल कंद आदि का प्रयोग करते थे और प्रवृत्ति से मांसाहारी थे।



 इनमें अनेक समुदाय एवं संप्रदाय थे सभी के रीति रिवाज पूजा साधना आदि में अलग-अलग प्रकार की मान्यताएं एवं विधि विधान प्रचलित थे। यह संस्कृति शिवलिंगों ,शक्तिपीठों ,मातृकुल पिंण्डियो आदि के उपासक कई समुदाय में विभक्त थे परंतु इन सब के मध्य में एक उन्नत विज्ञान के नियम कार्य कर रहे थे।


यह संभूमार्गी विज्ञान था जो वैदिक संस्कृति के विज्ञान से भिन्न था केवल इस विज्ञान को परिभाषित एवं सूत्रबद्ध करने का वर्णन भिन्न था, इनकी समस्त साधनाएं विधि-विधान भिन्न प्रकार के थे, इन्हें कई प्रकार की चमत्कारी शक्तियों का ज्ञान था जिसके कारण इन्हें मायावी कहा जाता था।राक्षस, यक्ष ,गंधर्व, किन्नर आदि इसी संस्कृति से संबंधित थे इसमें राक्षसों का समुदाय अधिक शक्तिशाली एवं विकसित था यह शिवलिंग के उपासक थे किंतु इनमें पिण्डिया, शक्तिपीठों एवं देवियों की भी पूजा उपासना होती थी मांस, मुद्रा बलि पूजा ,कन्या पूजा आदि विधान सर्वमान्य थे इनमें कोई विस्मय नहीं होना चाहिए यह मातृ पूजक थे और शिव (पारी कुपार लिंगो) द्वारा ही प्रकृति की ऋणात्मक सत्ता की शक्तियों की ही आराधना उपासना करते थे यह जंगलों पहाड़ों में रहते थे और इनका प्रमुख भोजन मांस था उनकी बलि का अर्थ भी वही था जैसे कोई भोजन से पूर्व अपने आहार का भोग अपने ईष्ट पर लगाता है।
 राक्षसों के इन आचरणों को वैदिक संस्कृति अधम कृत्य मानकर इन से घृणा करती थी यह घटना इनके आचरण और हिंसात्मक प्रवृत्ति के कारण थी । 
ज्ञान -विज्ञान की दृष्टि में इनके तंत्र और संभूमार्ग की व्याख्या से भी उन्हें इनके अधम कृत्य मानकर विरोध किया करते थे और इसी कारण उनमें परस्पर शत्रुता एवं युद्ध होता ही रहता था ।

प्राकृतिक संसाधनों जल एवं वन की रक्षा करने वालों को रक्ष और प्राकृतिक साधनों की पूजा करने वालों को यक्ष कहा जाता था परंतु यह भी सत्य प्रतीत नही होता है , प्रतीत होता है कि इन संबोधनो की उत्पत्ति आंखों के वर्ण के अनुसार हुई थी । रक्ष, यक्ष, गंधर्व ,किन्नर ,वानर आदि प्राकृतिक संसाधनों में विकसित होने वाली जनजातियां थी।


इनका नामकरण उनके गुण और प्रवृत्ति के अनुसार वैदिक संस्कृति ने ही किया था शरीर और आत्मा की रक्षा करने के सूत्र को मानने के कारण भी इन्हें रक्ष कहा जाता था एक कहावत यह भी है कि ब्रह्मा जी ने उन्हें वरदान दिया था किंतु यह एक अध्यात्मिक कथन है प्रकृति की शक्ति के नियंत्रक वैदिक संस्कृति में ब्रह्मा को माना जाता है ,यह वैदिक विवरण है ब्रह्मा एक प्राकृतिक शक्तिय है इसका कोई मृतरूप विधमान नहीं है पुराणों में रूपक हैं और उनके गोपनीय अध्यात्मिक अर्थ भी हैं।




राक्षसों के इष्ट ब्रह्मा विष्णु नहीं थे इसलिए इनके द्वारा ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिए तपस्या करना संभव ही नहीं था । इनकी शक्ति को देखकर वैदिक विद्वानों ने इस रूपक को अपनी आस्था के अनुरूप कथित किया है। 


राक्षसों के अधिनायक वैदिक संस्कृति के लिए हमेशा शत्रु बने रहते थे। यह लोग वैदिक ऋषि- और आक्रमणकारी आर्यों को भी अधिक शक्तिशाली होने के कारण अत्याधिक कष्ट पहुंचाया करते थे‌। इससे आप लोगों को यह तो ज्ञात हो गया होगा कि रावण वैदिक नहीं था तो क्या वह वेदों का ज्ञाता था क्योंकि वैदिक संस्कृति और रक्षसंस्कृति दोनों में भयंकर शत्रुता थी वे दोनो संस्कृतियों अपने -अपने मार्गो को ही श्रेष्ठ समझती थी और एक दूसरे से घृणा करती थी।


रावण भी वैदिक ऋषियों को अत्यधिक कष्ट पहुंचाया करता था । वह उनके यज्ञ - तपस्या विध्वंस कर डालता था और उनका रक्त निकाल लेता था उसी रक्त के घड़े से सीता का जन्म होना बताया जाता है और यह भी एक सत्य है की प्राचीन युग में बालक की जाति उसकी माता के वर्ण से ही जानी जाती थी जैसे कि विदुर को कभी भी न ब्राह्मण माना गया और क्षत्रीय, वह केवल एक दासीपुत्र कहलाता था जबकि वह ऋषि वेदव्यास के योग बल से उत्पन्न हुई संतान थी।
रावण भी इस सत्य को जानता था । वह जानता था कि उसे वैदिक संस्कृति से युद्ध करना ही होगा, वैदिक संस्कृति राक्षसों की बढ़ती हुई शक्ति को सहन नहीं कर सकती , रावण रक्षसंस्कृति का प्रचार-प्रसार कर रहा था वह उसका प्रवर्तक था , रक्ष संस्कृति को शक्तिशाली बना कर उसे वैदिक संस्कृति से भी अधिक सशक्त बनाने का उद्देश्य लेकर चलने वाले रावण की विवशता यह थी कि वह वैदिक संस्कृति के भय से अपना अभियान नहीं रोक सकता था क्योंकि यह रक्षधर्म की नीतियों के विरुद्ध एक अधम कृत्य था।

संभू संस्कृति (गोंडीसंस्कृति) की देन है तंत्र... इसका वैदिक मार्ग से कोई संबंध नहीं है । इसके संस्कारों एवं विधियों का अवलोकन करने से यह ज्ञात होता है कि यह किसी विपरीत संस्कृति का विज्ञान है जिसमें भी वीभत्स कृत्य और नर बलि जैसे कृत्य का प्रचलन था । मांस, बलि ,मदिरा, कापालिक कृत्य ,नरबलि, खोपड़ी में खानपान प्रचलित था।

इसका अपना विज्ञान था और वह वैदिक संस्कृति के सर्वथा विपरीत था । विज्ञान के सूत्र और नियमों में भी भिन्नता हैं और योनि, लिंग आदि की पूजा भी वैदिक संस्कारों में विपरीत थी । रावण ऋषि पुत्र होते हुए भी देवताओं और विष्णु का विरोधी था और रक्ष संस्कृति का रावण से पूर्व भी इनसे युद्ध होता रहा , इसके बाद भी उपलब्ध समस्त तंत्र साहित्य में विष्णु ,वैदिक ऋषि ब्रह्मा आदि समाए हुए हैं तो यह तंत्र का वैदिकीकरण है और इसे दक्षिण मार्ग कहकर स्थापित किया गया है और यही सब वाम मार्ग में भी समाए हुए हैं इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि आस्थाओं को अपने-अपने संप्रदाय की ओर मोड़ने के लिए ही सब किया गया है इससे भारी भ्रम भी उत्पन्न हो जाता है क्योंकि अनेक ऐसे तंत्र ग्रंथों में सुरा पान और नरबलि आदि के विवरण समाए हुए हैं।

वैदिक संस्कृति मांसाहारी थी या नहीं यह तो ज्ञात नहीं पर उसमें नरमेध व गौमेध और अश्वमेध जैसी प्रथाएं थी। इन्हें वैदिक देवताओं एवं ऋषियों के नाम पर यज्ञ क्रियाओं का मार्ग, विधि बताया गया है और देवियों के जिन रूपों की आज हम पूजा करते हैं प्राचीन प्रमाणिक वैदिक ग्रंथों में इनका कहीं भी उल्लेख नहीं है। 

वेद उपनिषद मे शिव, संभू व महेश्वर भी नहीं है अतः इन विवरणों से भ्रम में न पड़े । यह वैदिक है शिव एवं शाक्त मार्ग की देन है और इसके प्रवर्तक एक अलग ही संस्कृति के थे । यह आसुरी वृत्ति है तो हो सकता है कि यह असुर ही रहे हो और कालांतर में इन्हीं से रक्षसंस्कृति उत्पन्न हुई।

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