गर्व उन्नत भाल के थे सम्मान, विजय-तिलक सरीखे
राष्ट्र-नयनों ने उनके संग निज स्वप्न हैं सफल देखे
शिक्षक थे हिंदुस्तानी, तो शिक्षक समान ही विदा हुए
ज्ञान,विज्ञान,स्वाभिमान का आजीवन संगम अनूठे
------ नीरु
मन के बोल पर जब जिंदगी गहरे भाव संजोती है, विह्वल होकर लेखनी कहीं कोई संवेदना पिरोती है, तुम भी आ जाना इसी गुलशन में खुशियों को सजाना है मुझे, अभी तो अपनेआप को तुझमें पाना है मुझे
Tuesday, 28 July 2015
कृतज्ञ राष्ट्र की भावभीनी श्रृद्धांजलि,, सलाम हमारा आदरणीय कलाम जी को
Saturday, 25 July 2015
मैं हूँ मुझमें
मैं कभी
अपने से अलग तो नही,
डरती अपने को खोने से
कहीं,
जीवन की चौखट पर रहे
सुख-दुःख मेहमान सदा,
सीखी है मैंने
जिंदगी
हँसकर जीने की अदा,
आँखों में मेरे संजोती
आशायें
रोशनी
दर्द में भी होंठों पर हँसी,
बिखराव में सबको समेटते
अगर कभी मैं
अंधेरों में भटकती
तो मेरी आस्थायें मुझे खुद से
मिलातीं
मेरे संस्कार जीवंत रखते
मेरे जीवन- अस्तित्व को,
बहुत अच्छा कि मैं
कहीं खोई नहीं,
मिल ही जाती
आसानी से
मैं हूँ शाश्वत
मुझमें
------- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'
Monday, 20 July 2015
राह परछाई नही
साथ चलती किसके कोई राह परछाई नही
कौन जानें मुश्किलें कब साथ में आई नही
दे गया कोई कली की आँख में सपने नये
आस में वो शाम तक यूँ ही तो मुरझाई नही
मीत हैं सुख के सभी कोई कभी दुःख में नही
भीड़ में रहते हुए क्या साथ तन्हाई नही
भूख ने छीना यहाँ ईमान भी इंसान का
शर्म आती है मगर मजबूर टिक पाई नही
बदलते मौसम कहाँ तुमको कहा हमने कभी
देखने को असलियत तो पास बीनाई नही
------ निरुपमा मिश्रा " नीरू"
Saturday, 18 July 2015
अज्ञानी
चलो, उठाओ किताबी बातें
कहीं और लेकर जाओ,
यहाँ हर शब्द
धुंधले नज़र आते हैं
जब अनुभव से परे
बातें बताते हैं,
खुल जाये मन की आँखें
तो खोल लो,
अपनी भावनायें
भी तो तौल लो,
अपने फर्ज़ से मुँह छिपाना,
परछाई-मृगतृष्णा
के पीछे भागना
क्या ज्ञान कहलाता,
रहने दो
फिर तो मुझे
अज्ञानी बने रहना
भाता ,,,,
----- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'
Tuesday, 7 July 2015
जीवन की गाड़ी
एक की अपूर्णता पूर्ण हो जाती
दूसरे का सामर्थ्य पाकर
हाथ में हाथ थामें
कदम मिलाते कदमों से,
सुनते हैं एक- दूजे के
सुख-दुःख छिपे उनकी
धड़कनों में,
जीवन की गाड़ी के दो पहिये बराबर
सहयोग करते,
तमाम झंझावात- खुशियां
समेटते,
एक राह के हमसफर
जीवन भर का साथ
जीवनसाथी
अगर
विपरीत रूप लेकर
अलग - अलग
दिशाओं के रुख किये चलते रहें
तो जीवन नरक से बदतर
हो जाता ,फिर
तो साथ - साथ चलना
सम्मान संजोये रखने की
मजबूरी कहलाता
----- नीरु ' निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'
Friday, 3 July 2015
तुम
बिना तुम्हारे मैं एक दिन की
कल्पना करूं भी तो कैसे,
तुम्हे खोने के ख्याल से
भी डरती ,
दूरियां न आयें कभी
कुछ कहने कुछ सुनने की
आस में हर पल रहती,
वो अनकहे शब्द
जो कहना चाहे थे मैंने
पर कहने- सुनने के बीच
आ जाते हैं कुछ
अधूरे सपने,
बिखर जाती
सपनों की तरह
जब तुम्हे सपनों में खोया
हुआ पाती,
महसूस करो न तुम भी,
भले ही पूरे न हों
ये अधूरे सपनें,
रहें हमेशा
अपने बस अपने,
मेरी खामोशियां
कहतीं,
कि तुम हो मेरे,
मेरे हो सिर्फ और सिर्फ
तुम
----- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'
Wednesday, 1 July 2015
स्वयं
जिसने जीवन को
जाना
स्वयं को
पहचाना
वो
सागर की तरह
गंभीर
होता है,
उसमें
समायी
होती हैं
प्यार-अपनेपन
की
नदियां,
बेवजह
की हलचल
नही होती,
भावनाओं के तूफान
खामोश
रहते हैं
हृदय में
------ निरुपमा मिश्रा " नीरू"