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Showing posts from October, 2015

तुम्ही रहते हो हर पल सपनीली निगाहों में

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तुम्ही रहते हर पल सपनीली निगाहों में रहना साथ जीवन की पथरीली राहों में कभी तो अक्स उभर आता  कभी ओझल हो जाते हो , कभी सांसों के करीब कभी बीते पल हो जाते हो  तुम्ही तो बसते  हो मेरी कल्पनाओं में  रहना साथ जीवन की पथरीली राहों में तुम वही हूबहू जिसको दिल मेरा मोहब्बत कहता तुम्हारी आरजू में ही दिल मेरा धड़कता रहता तुम्ही तो हरदम मेरे प्यार की चाहों में रहना साथ जीवन की पथरीली राहों में मायूसियों में कभी मुझे तुम मिटने नही देते किसी भी ग़म में कभी बेबस उलझनें नही देते  जाने नही देते निराशा की पनाहों में  रहना साथ जीवन की पथरीली  राहों में  प्यार- भरोसा ही तो सभी रिश्तों का सहारा है सपनों से सजा हुआ सुंदर संसार हमारा है  डूबने पाये नही कश्ती कभी आहों में  रहना साथ जीवन की पथरीली राहों में चाँद की गवाही में अपने प्यार की रोशनी होगी महफिल में सितारों की महकी- महकी चाँदनी होगी  खुशबुओं के रंग बिखर जायेंगे राहों में रहना साथ जीवन की पथरीली राहों में तुम्हीं रहते हर पल सपनीली निगाहों में रहना साथ जीवन की पथर...

हौसला पतवार है

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वक्त के आगे कहाँ चलता किसी का वार है जो नही समझे समय पर तो गया वो हार है कौन कितना है सही कोई कहे कैसे भला हम सही हैं तुम गलत हो बस यही तकरार है चाल चलने में लगी कैसी दिमागी  साजिशें दिल बहुत मासूम धोखा  यार बेशुमार है कह रहा है कौन अपने आप से ही बस यही पास आयेगा किनारा हौसला  पतवार है बीत जायेगा  समय जो खार बनकर है मिला प्यार है जब साथ अपने कब खुशी दुश्वार है ------- नीरु 'निरुपमा मिश्रा  त्रिवेदी'

खोल दे मन के द्वार

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मुस्कान तेरी चंपई रूप तेरा हरसिंगार अब खोल दे मन के द्वार   तन है थामें सांस जब तक रहे शक्ति-आभास तब तक   स्वयं तुम नदिया की धार अब खोल दे मन के द्वार लता पनपे तुमसे प्यार की बगिया हो ममता-दुलार की शक्ति का तुम ही उपहार खोल दे अब मन के द्वार भावनायें जब होती मनोहर हो जाता जीवन सुमन- सरोवर महक जाता है संसार खोल दे अब मन के द्वार -----  नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

क्यों

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पत्थरों में ढाल दिया अस्तित्व और यूं ही जीवन बीत गया क्यों, सबके गीतों को तो बोल दिये अपने पर स्वयं के सुख-दुःख का खो संगीत गया क्यों, इंसान ही तो बेजान नही कोई स्पंदन तो कहीं बाकी फर्ज निभा कर भी मिले पराजय जग ये हरदम जीत गया क्यों,, ---- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी' 

कलियाँ

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खुशबुओं से भिगोने अपने चमन को कलियाँ छोड़कर जाती ये अपने बाबुल की गलियाँ धान के पौधे सा कोमल है इनका वजूद छलावों की धूप में स्वार्थ बरसाये दुनियाँ ----- निरुपमा मिश्रा