शतरंज के मोहरे

व्यापारी, खिलाड़ी और मोहरे 

एक समय की बात है, विश्व राजनीति के विशाल शतरंज पर एक बड़ा खेल खेला जा रहा था। खेल के दो मुख्य खिलाड़ी थे—अमेरिगुल्ला और रूसानाथ। ये दोनों पुराने प्रतिद्वंद्वी थे, जिनकी दुश्मनी इतिहास की धूल से सनी हुई थी। खेल के मोहरे थे छोटे-छोटे देश, और सबसे नया मोहरा बना यूक्रानंद।  

यूक्रानंद एक युवा, जोशीला मोहरा था। उसे हमेशा लगता था कि वह अपनी ताकत से बड़ा बन सकता है, बशर्ते कि उसे सही गुरु मिले। उसकी नजरें अमेरिगुल्ला पर थीं, जो दूर बैठा दुनिया के छोटे मोहरों को पासा फेंककर चलाने में माहिर था।  


अमेरिगुल्ला ने यूक्रानंद से कहा—
"देखो बेटे, तुम स्वतंत्र हो, महान हो! लेकिन अगर तुम मेरी तरह बनना चाहते हो, तो मेरी टीम में आ जाओ। नाटोपुर का सदस्य बनो, अपने देश में मेरी बनाई नीतियाँ लागू करो, और रूसानाथ से दूर रहो। वैसे भी रूसानाथ पुरानी सोच का आदमी है, वह तुम्हें आगे बढ़ने नहीं देगा।"

यूक्रानंद को यह विचार बहुत पसंद आया। उसने झटपट हामी भर दी और अमेरिगुल्ला के दिए हुए नारे लगाने लगा—"मुझे भी सुपरपावर बनना है!"

अब रूसानाथ तो पड़ोसी था, उसे यह बिल्कुल भी पसंद नहीं आया कि उसका मोहरा (या पड़ोसी) किसी और के पाले में चला जाए। उसने कई बार समझाया—  
"बेटे, हम तो बरसों से साथ रह रहे हैं। व्यापार करते हैं, संस्कृति साझा करते हैं। तू क्यों दूर जा रहा है?"

लेकिन यूक्रानंद अब अमेरिगुल्ला की बातें सुनने लगा था। उसकी आँखों में चमकते हथियारों और दौलत के सपने थे।  

फिर एक दिन खेल शुरू हो गया।

रूसानाथ ने यूक्रानंद पर धावा बोल दिया। अमेरिगुल्ला ने तालियाँ बजाईं, भाषण दिए, और अपनी जेब से हथियार निकालकर यूक्रानंद को पकड़ाए। साथ ही, उसने अपना पुराना पैंतरा आज़माया—"रूसानाथ पर प्रतिबंध लगा दो!"  

लेकिन रूसानाथ घाघ खिलाड़ी था। उसने प्रतिबंधों को ठेंगा दिखाया और चीनपुर के बाजार में जाकर धंधा जमा लिया। उधर, अमेरिगुल्ला के हथियार तो आते रहे, लेकिन यूक्रानंद को यह समझ नहीं आ रहा था कि उसके सैनिक कब तक लड़ते रहेंगे? उसका घर जल रहा था, जनता पलायन कर रही थी, और अर्थव्यवस्था का हाल ऐसा था कि डॉलर देखकर भी भूख नहीं मिटती थी।  

तब अचानक अमेरिगुल्ला ने अपना रुख बदला। 

"यूक्रानंद, अब बहुत हुआ। युद्ध खत्म करो, शांति से बैठो।"  

यूक्रानंद चौंका—"लेकिन मालिक, आपने तो कहा था कि हम रूसानाथ को हरा देंगे?"

अमेरिगुल्ला मुस्कुराया—"बेटे, व्यापार में नुकसान की भरपाई करनी पड़ती है। अब चुनाव नज़दीक हैं, और जनता मुझसे पूछ रही है कि हमने इतने हथियार बेचे फिर भी क्यों कुछ नहीं बदला? अब अगर युद्ध खत्म होगा, तो मैं शांति-दूत बन जाऊँगा और मेरे वोट भी बढ़ेंगे।" 

यूक्रानंद समझ गया कि वह सिर्फ एक मोहरा था। उसकी ज़मीन बर्बाद हो गई, उसकी जनता उजड़ गई, और अंत में उसे ही डांट पड़ रही थी। 

रूसानाथ तो अपने पुराने ठिकाने पर मज़े से बैठा था। अमेरिगुल्ला ने खूब हथियार बेचे, दुनिया में चर्चा बटोरी, और अब शांति का मसीहा बनने चला था। लेकिन यूक्रानंद… वह अब भी खंडहरों के बीच खड़ा था, सोच रहा था—"क्या मैं सही था?" 

लेकिन राजनीति में मोहरों की सोच मायने नहीं रखती। खिलाड़ी खेलते हैं, व्यापारी मुनाफा कमाते हैं… और मोहरे? वे सिर्फ बलि चढ़ाए जाते हैं।
लेखक -: प्रवीण त्रिवेदी 'दुनाली फतेहपुरी"
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