पलायन

मीलों तक पैदल चले, सभी उपेक्षित लोग| प्रकोप को भी रोकना,बड़ा भयानक रोग|| मजदूरी मिलती नही,मिला नही है काम| पापी पेट न मानता,कैसे हो आराम|| निरुपमा मिश्रा नीरू
मन के बोल पर जब जिंदगी गहरे भाव संजोती है, विह्वल होकर लेखनी कहीं कोई संवेदना पिरोती है, तुम भी आ जाना इसी गुलशन में खुशियों को सजाना है मुझे, अभी तो अपनेआप को तुझमें पाना है मुझे