नववर्ष

कितनी सहजता से तारीखों के बदलते ही कैलेंडर बदल जाते , समय- परिस्थितियां भी बदल ही जाते, माटी के तन में एक मन जो इन सबके बीच समेटते- सहेजते बनते- बिगड़ते एक जैसा कहां रहता, बदला...
मन के बोल पर जब जिंदगी गहरे भाव संजोती है, विह्वल होकर लेखनी कहीं कोई संवेदना पिरोती है, तुम भी आ जाना इसी गुलशन में खुशियों को सजाना है मुझे, अभी तो अपनेआप को तुझमें पाना है मुझे