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Showing posts from April, 2015

दर्द

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सिहर-सहम उठता ये ज़माना हर आँख रोई जिंदगी ने जब- जब भी अर्थी मौत की ढोई कहीं टूटे सपनें किसी के छूट गये अपने पाया इस दर्द को जिसने कब भूलता कोई --- निरुपमा मिश्रा " नीरू "

लौट आना प्रिये

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उगते हुए सूरज हो तुम अभी बहुत होगा वंदन- अभिनंदन , पर दर्प से दीप्ति तुम्हारी प्रसन्नता जब चरम पर होगी क्या देख सकोगे तुम किसी मन की पीड़ा , फिर जब तुम ढलने लगोगे होंगे द्वार बंद प्रशंसा के कौन समझेगा तुम्हारी पीड़ा , तब भी तुम्हारे सहारे हैं ये जो चाँद - सितारे घर आने की तुम्हारी राह देखेंगे कि लौट आना प्रिये जीवन के पथ पर द्वार खोले मिलेगा तुम्हें कोई अपना तुम्हारी रश्मियों में देखने को अपना सवेरा ---- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'