गुनगुनाये रागिनी जैसे, तुम अमावस की रात में
खिखिलाये फूल जैसे,तुम खुशबुओं की बरसात में
अमरबेल-सा प्रेम अपना, रहेगा हरदम सदियों तक
जगमगाये दीपक जैसे, तुम मन-आँगन-बारात में
---- नीरु ( निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी)
मन के बोल पर जब जिंदगी गहरे भाव संजोती है, विह्वल होकर लेखनी कहीं कोई संवेदना पिरोती है, तुम भी आ जाना इसी गुलशन में खुशियों को सजाना है मुझे, अभी तो अपनेआप को तुझमें पाना है मुझे
गुनगुनाये रागिनी जैसे, तुम अमावस की रात में
खिखिलाये फूल जैसे,तुम खुशबुओं की बरसात में
अमरबेल-सा प्रेम अपना, रहेगा हरदम सदियों तक
जगमगाये दीपक जैसे, तुम मन-आँगन-बारात में
---- नीरु ( निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी)
शान अपनी सभी तो दिखाते रहे
दर्द भी क्या कहें गुनगुनाते रहे
आपके प्यार में हम बेहया हो गये
प्यार भी क्या ज़हर सब पिलाते रहे
आपने दे दिया ग़म यही है बहुत
और क्या दे सके मुस्कराते रहे
अब मिले आप भी, ज़िंदगी की तरह
रोशनी मिल गयी, बंदगी की तरह
हम नहीं बेख़बर, आपसे अब रहे
आप हैं अब हमारी,ख़ुशी की तरह
---- नीरु
बात कोई जो दिल में छुपाकर चले ।
आसमां भी वही फिर उठाकर चले ।
राह में ठोकरें भी बहुत- सी लगी,
हौसले हम सभी फिर जगाकर चले।
देखिये तो सनम इक इधर भी नज़र,
हाथ भी तो हमीं से मिलाकर चले ।
सुबह के वक्त थोड़ी सुनसान सड़क
पर फैली गंदगी के बीच
सांवली-सलोनी काया
अपनी उम्र के हिसाब से कुछ ज़्यादा
ऊंचे कद के बांस के मुहाने पर
अपनी तनख्वाह से कई गुना ज़्यादा
तीलियों के झुंड को बांधकर तल्लीनता से
कुछ गुनगुनाती करती है साफ़-सफाई
तेरी वापसी
जूही , चमेली,कचनार
चंपा,बेला और हरसिंगार के फूल
महक उठे फिर
दिवस मास नहीं
ऐसा लगा कि सदियों बाद
तेरी वापसी हुई,
घोंसले में चिड़िया
गमकती, लरजती हवा
अंधकार में ,तल-अतल में डूबी
दिशाओं में रोशनी और
सूखी पड़ी नदी में
जल की नहीं
तेरी और तेरी ही वापसी हुई,
रंग बदलती हुई दुनिया में, रंग अपने बचपन के
उम्र भले ही कितनी होगी, दिल दो रहने बचपन से
दुनियादारी के चक्कर में, ख़ुद को भी हम भूल गये
हमसे हमको मिलवाये, वो ढंग सलोने बचपन के
---- नीरु ( निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी)
हंसमुख स्वभाव की थी नवधा और उसके पति संयम भी उसी के स्वभाव के जैसे थे | दोनों पति-पत्नी को कहानी, कविताओं, शेरो-शायरी का बहुत शौक़ था, नवधा तो कभी-कभार कहानियां-कविताएं आदि भी लिखा करती जिसके पहले पाठक अक्सर उसके पति ही हुआ करते , नवधा को बचपन से ही लिखने का शौक़ रहा इसलिए वो अपने विवाह के पहले जब भी कुछ लिखा करती तो सबसे छुपा कर अपने माता-पिता, भाई-बहनों को पढ़ाया करती थी, नवधा का परिवार उसके लेखन को सराहता, और भी बेहतरीन लिखने को हमेशा प्रेरित भी किया करता, शादी के बाद उसके ससुराल में भी किसी को उसके लेखन के शौक पर कोई आपत्ति नहीं थी|
विवाह के बाद कुछ दिनों तक तो नवधा का लेखन का हुनर छिप-सा गया था मगर परिवार वालों की इच्छा के अनुसार और अपने कुछ ख़ास दोस्तों का दिल रखने के लिए नवधा ने समय निकाल कर फिर से लेखनी थामी | एक दिन नवधा अपने रोज़मर्रा के काम-काज़ निपटा रही थी कि आलमारी साफ़ करते समय उसके हाथों में उसके पति की एक पुरानी डायरी लगी तो वो उसके पन्ने पलटने लगी, बीच में गुलाबी स्याही से लिखी प्यार भरी तहरीर पढ़ कर वो सोचने लगी कि ये क्या है , क्या उसके पति की विवाह से पहले कोई प्रेमिका भी रही है ?, लेकिन अपने स्वभाव के अनुरूप नवधा ने वो डायरी उसी तरह वहीं ज्यों कि त्यों रख दी |
नवधा और संयम की जोड़ी उनके आपसी समझ के कारण बड़ी मशहूर थी, ऊपर से दोनों का एक जैसा स्वभाव भी बहुत लोगों की ईर्ष्या का कारण रहा हमेशा ही, मगर इन सबसे उन दोनों के आपसी रिश्ते में कोई खटास नहीं आने पाई कभी | नवधा बहुत सुशील , गुणवान और रूपवान थी जिसके कारण कई बार लोग उसे अपने प्रेम जाल में फसाने को बड़े बेताब हुए लेकिन नवधा पूरी तरह से अपने पति और परिवार को ही समर्पित थी अतः उसके सामने किसी की दाल गलने नहीं पाई जो कि नवधा के चरित्र के बारे में तरह - तरह की अफवाहों की जन्मदायक भी हुई मगर इन सबसे उसे या उसके परिवार को फ़र्क तो नहीं पड़ता बस कभी-कभी सब उलझ जरूर जाते थे|
पहले प्यार का एहसास सभी को आजीवन याद रहता है मगर समय के साथ-साथ अपने प्यार को संवारते रहना और परवान चढ़ते देख सन्तोष होना तो कोई नवधा के पति संयम से सीखे | शाम के वक्त संयम आलमारी में कुछ खोज़ रहा था उसे परेशान देख नवधा ने पति की मदद करनी चाही तभी वही पुरानी डायरी ज़मीन पर गिर पड़ी |
नवधा और संयम के बीच में उस पुरानी डायरी के वही पन्ने खुले हुए थे जिसे पढ़ कर नवधा ने उस दिन चुपचाप रख दिया था | खुले हुए पन्नों में पहले प्यार की दास्तान के रुपहले अक्षर अपने एहसास की खुश्बू में भीगे हुए मुस्करा रहे थे कि हड़बड़ाहट में संयम और नवधा दोनों ही डायरी उठाने को झुके और आपस में सिर लड़ा बैठे | "सॉरी", संयम ने कहा तो नवधा बोली कि "क्यों सॉरी", | संयम इसके आगे कुछ बोल न सका , तभी नवधा डायरी के उन्हीं पन्नों को फिर पढ़ने लगी तो संयम ने कहा-" प्लीज़ , आप इसे न पढ़िए," नवधा मुस्कराई -" क्यों न पढूँ मैं इसे, बताइये तो" नवधा को शरारत से मुस्कराते देख संयम शरमाते हुए बोला कि -" ये सब तो बहुत पहले मैंने आपके लिए ही लिखा था और आज ख़ुद आपने ही इसे पढ़ लिया "|
"ओह्ह,धूप तो बहुत तीखी है", मधुर, मगर बेबस आवाज़ के पीछे आस-पास बिखरी हुई कई निगाहें, सिमट कर देखने लगीं कि ये किसने कहा| सबने देखा तो जाना ये तो एक मध्यम कद कि सुंदर-सी सांवली सलोनी महिला के मुख से छलकी हुई शब्द लहरी है, जो अपने दो छोटे मासूम बच्चों को लिए बस स्टॉप पर अपने गंतव्य की ओर जाने वाली बस के इंतज़ार में पेड़ों की छाँव ख़ोज़ते पसीने से तर-बतर हुई जा रही थी|
उस महिला के साथ के बच्चे भी अपनी माँ का आँचल थामें हुए कड़ी धूप से तिलमिला रहे थे, वो कभी अपनी माँ को देखते तो कभी पीछे लगी दुकानों पर टंगे हुये खिलौने आदि, कभी निगाहें दौड़ा कर चिप्स,कुरकुरे और टाफ़िज़ खोजने लगते, माँ से अपनी मांगें मनवाने के लिए बीच-बीच में कुनमुना भी रहे थे मगर माँ कड़ी धूप से अपने बच्चों को बचाने के लिए जल्दी से बस के आने की मन ही मन ही प्रार्थना करने लगी जो कि उसके मुट्ठियों के बंद होने और खुलने के साथ बुदबुदाते होंठों से सभी देखने वालों को साफ़ महसूस हो रहा था|
बस स्टेशन से सूचना मिलने पर कि बस देर से आएगी क्योंकि रास्ते में ट्रैफ़िक बहुत है ,माँ अपने बच्चों को लेकर बगल के गन्ने वाले जूस की दुकान की छाँव में खड़ी हो गयी और अपने आँचल को बच्चों के सिर पर फैला कर बहती बेहद गर्म हवा से बचाव की कोशिश में लग गयी, इतने में उनकी मुलाकात विद्यालय से लौटती एक शिक्षिका से हुई जो अपने दोनों हाथों में थैला लिए कंधे पर बैग टांगे उनके बगल में आकर खड़ी हो गयी थी|
अध्यापिका चुपचाप अपने सिर को अपने दुपट्टे से ढंके बच्चों की ज़िद और माँ की मनुहार देख रही थी कि तभी उस महिला के साथ की बच्ची ने अध्यापिका का हाथ थाम कर कहा कि, - "आप थोड़ा-सा झुकिए तो आपके कान में मुझे एक बात बतानी है" अध्यापिका चौंक कर देखने लगी और मुस्करा कर पूछा "कौन -सी बात" फिर हौले से बच्ची की तरफ़ झुकी|
" आंटी, ये जो मेरी माँ हैं न , इन्होंने आज मुझे शॉप में न, पर्पल कलर की ड्रेस नहीं दिलवाई " बच्ची ने अध्यापिका के कान में खुसफसाते हुए कहा,अध्यापिका बोली -" अरे' , बच्ची कुछ सोचते हुए फिर बोली कि -" लेकिन मुझे पिंक कलर की ड्रेस दिलवाई ,वो बहुत सुंदर लगती है , सच्ची" ,अध्यापिका बच्ची की बात सुनकर मुस्कराई , -" ये तो बहुत अच्छी बात है न" बच्ची ने अध्यापिका की बात पर अपना सिर हिलाकर मुस्कराती आँखों से हामी भरी कि " हाँ" |
इसी तरह बच्ची थोड़ी-थोड़ी देर में कुछ सोच-सोच कर अध्यापिका के कान में अपनी बातें कहती और अध्यापिका धैर्यपूर्वक बच्ची की बातों को सुन कर ज़वाब देती, थोड़ी देर में न जाने किस बात पर अध्यापिका और बच्ची जब जोर से खिलखिला उठी तो बच्ची की माँ कुछ झेंपते हुए बच्ची की बांह थामते हुए अध्यापिका से बोली कि ,-" सॉरी आपको मेरी बिटिया बड़ी देर से परेशान कर रही है" , अध्यापिका ने बड़ी ही शालीनता और सहजता से ज़वाब दिया कि, -" ऐसा नहीं है, मुझे कोई परेशानी नहीं, बच्चे तो मन के सच्चे होते हैं, हमें उनकी बातें धीरज से सुननी और समझनी चाहिए ,नहीं तो उनका मन उदास हो जायेगा फिर वो अपनी जिज्ञासाओं का हल खोजने किसके पास जायेंगे, यही बच्चे तो हमारा भविष्य हैं" , अध्यापिका की बात सुनकर माँ के चेहरे पर बहुत ही ममतामयी, अपनत्व भरी मुस्कान खिल उठी,
तभी बच्ची ने फिर सवाल किया कि-" क्या आप टीचर
मैंम हैं" तो अध्यापिका ने हंसते हुए ज़वाब दिया कि-" हाँ जी, मैं टीचर मैंम ही हूँ और आज से तुम्हारी मौसी भी" |
------- नीरु (निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी)
जनवरी की कड़कड़ाती ठण्ड के बाद फ़रवरी की गुनगुनाती धूप के आँचल में बसंती पवन की मदमस्त चाल दीवानगी के रोग की एक मशहूर वज़ह पाई जाती है, ऐसे में जनवरी के माह में मकर संक्रांति के त्यौहार में आसमान में उड़नें वाली पतंगों की ओट में नैनों के पेंच इस छत से उस छत पर दिखाई देना बहुत ही मनोरम दृश्य रहता रहा है, ये सिलसिला यूँ ही मार्च महीने के होली के रंगीन नजारों तक अनवरत जारी रहता है |
वैसे एक बात तो गौरतलब है कि इंसान हो या और कोई जीव सभी के मन को बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के प्रीत का एहसास एक अज़ीब से नशे में डूबने को मजबूर कर देता है, जिसमें चार जोड़ी आँखों की गुस्ताखियों की हमेशा से ही बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका पाई जाती रही है, इन सबमें अक्सर पड़ोसिनें अक़्सर खूबसूरत ही होती हैं और फिर अनेक वज़हों से , कई रिश्तों-नातों की बोलियों-ठिठोलियों की दियासलाई से न जानें कब, कैसे प्रेम -अगन की ज्वाला किसी के भी मन को भीतर ही भीतर जलाने लगे ये कोई नहीं जान सकता|
ठीक इसी तरह अपनी कुछ उलझनों का हल पाने को बेताब, अनेकों जिज्ञासाओं को लेकर नादिरा ने अपनी सखी राधा से अपनी आवाज़ में हल्का ग़ुस्सा लिए पूछा - " राधा, एक बात मेरी समझ में नहीं आती कि ऐसा क्यों होता है ?"
नादिरा का चेहरा देख नटखट राधा के होंठो पर मुस्कराहट खेल गयी - " कैसी बात नादिरा" राधा ने पुछा |
" यही कि चाहे-अनचाहे ये कमबख्त प्यार-मोहब्बत का टोकरा लिए हर दूसरे दिन कोई न कोई सामने आकर जबरन हाज़िर हो जाता है, क्या बला है ये भी"
नादिरा की बात सुनकर राधा ठहाका मार कर खिलखला पड़ी, बमुश्किल अपनी हंसी को रोकते हुए बोली कि-" अरे मेरी प्यारी सखी, ये इश्क़ है, प्यार है, मोहब्बत है कोई बला नही है री, ये प्रेम वो अगन है जो लगाये न लगे और बुझाये न बुझे, कितने ही रिश्ते , सपनें सब इस अगन में जलकर राख़ हो जाते मगर ये लाइलाज रोग जैसे ही होता है क्योंकि दिल जो होता है न सबका वो तो किसी सूरत में नहीं मानता जी "
दोनों सखियाँ अपनी ही बातों पर हँसते-हँसते लोटपोट होने लगीं |
----- नीरु (निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी)