मन के बोल पर
जब जिंदगी
गहरे भाव संजोती है,
विह्वल होकर लेखनी
कहीं कोई
संवेदना पिरोती है,
तुम भी आ जाना
इसी गुलशन में
खुशियों को सजाना
है मुझे,
अभी तो अपनेआप को
तुझमें
पाना है मुझे
फिर उजाले से हमें धोखा हुआ है क्यों भला
साँप जैसे कौन ये लिपटा हुआ है क्यों भला
गोद सूनी,माँग सूनी , बुझ गया रोशन दिया
चल रही सरहदों पर बेरहम ये हवा है क्यों भला
------ निरुपमा मिश्रा " नीरू"