कह दो
तो दिन को
भी मैं रात कह दूँ
तपती हुई धूप
को भी
भीगी- भीगी सी
बरसात कह दूँ,
क्या मिलेगी इससे
तुम्हें
सम्पूर्ण खुशी
कि
कठपुतली - सी
बनकर रहे
तुम्हारी प्रेयसी,
रूढ़ियों के पार
तुम क्यों नही जाते,
कारागार से निकल
अपनी संपूर्णता
क्यों नही अपनाते ?
मेरा आँचल इतना
छोटा तो नही
कि माँ जैसी ममता
बहन जैसा दुलार
दोस्त के जैसा प्यार
नही संभाल सके,
तुम्हारे दामन में
ढलकर भी
अपना अस्तित्व नही
संभाल सके,
हमने संभाली हैं
इसमें ही
पीढ़ियाँ
फिर क्यों इतना
असमंजस में हो
मुस्कराओ प्रिये
कि तुम अपनी
संगिनी के
हृदय-मधुरस में हो
----- नीरु
मन के बोल पर जब जिंदगी गहरे भाव संजोती है, विह्वल होकर लेखनी कहीं कोई संवेदना पिरोती है, तुम भी आ जाना इसी गुलशन में खुशियों को सजाना है मुझे, अभी तो अपनेआप को तुझमें पाना है मुझे
Wednesday, 23 December 2015
संगिनी
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