Sunday 25 January 2015

मन के बोल

फेसबुक मित्र  निरुपमा मिश्रा "नीरु " का दैनिक लोकजंग प्रकाशन -भोपाल से प्रकाशित काव्य संग्रह  "मन के बोल" पिछले सप्ताह डाकिया पकड़ा गया, नीरु से मेरा धर्म बहन का नाता । शायद किसी अच्छे प्रकाशन तक न पहुँच पाने के कारण आनन-फानन में छप गई ,संग्रह को जो महत्व मिलना चाहिए वह शायद न मिल पाये ,क्योंकि न तो बड़ा प्रकाशन है और न तो उस पर अभिमत लिखने वाले कथित बड़े लोग ,प्रकाशन के तिलस्मी संघर्ष में अक्सर सीधे - साधे लोग हार जाते हैं और तब जो भी हाथ आगे बढ़ता है उसी को स्वीकार कर लेते हैं  ।
संग्रह  शीर्षक "मन के बोल"  सार्थक है क्योंकि प्रायः सभी कविताएँ समय - समय पर मन के भीतर उपजी भावनाओं का शब्द चित्र हैं । नीरु ने जीवन के अधिकांश पहलुओं का सामना किया है, उसके मन की शून्यता में भावनाओं का प्रवेश एक चुप आलोड़न का आगाज़ करता है , नीरु का चित्र और कविता में उठते विषय अन्योन्याश्रित आभास कराते हैं जैसे कोई खुद में खोया आदमी यह जानते हुए कि मेरे विचारों का किसी के लिए शायद कोई महत्व न हो,फिर भी अपनी बात तो रख दो । नीरु भीतर पल रहे दर्द को खुद सबके सामने नहीं रखना चाहती  इसलिए कि बताने  पर तमाशा होगा ,ज्यादा अच्छा कि लोग खुद पढ़ लें,पढ़ तो वही सकता है जिसके अनुभावन का आकाश व्यापक हो । " सुनि इठलइहैं लोग सब, बाँटि न लइहैं कोय " इसलिए वह कहती है "आसान नही होता /मायूस निगाहों /का दर्द पढ़ना /------ आसान नही होता /अपने आप से निकलना/ आसान नहीं होता /किसी के दर्द में पिघलना "
नीरु  भावनाओं के आकाश में केवल काल्पनिक उड़ान नहीं भरती ,जीवन की " हकीकत" को भी  स्वीकार करती है,वो भावुक प्रेम से परे यथार्थ दाम्पत्य संघर्ष को जीवन का अविभाज्य हिस्सा स्वीकार करती है , "प्रेम की नदी/जब कर्तव्यों के/सागर से/मिलती है/भंवर भी/ज्वार -भाटे भी आते हैं "  । अफसोस और आह से परे जीवन को संघर्ष मान घायल ही सही आगे बढ़ने का हौसला दुर्लभ तो है पर कवयित्री के लिए काम्य है । "किनारे " कविता में जीवन के रणांगन से उठकर अज्ञात  सत्ता से साक्षात्कार  कर वह अपने अँधेरे में एक सूर्य ढूँढ़ लेती है "कि चाँद -सितारों /में रोशनी तुमसे है/मेरी साँसों के सितार पर/जीवन -रागिनी तुमसे है" ।
  संग्रह में जहाँ पारिवारिक मित्र "गाय " के अस्तित्व से गहरा लगाव है वहीं दाम्पत्य जीवन की सहज समस्याओं पर गद्यात्मक चिंतन भी । "स्त्री" जीवन को भोग्या और दासी समझने वालों के लिए नसीहतें भी हैं । नीरु की खासियत है कि उसे गुस्सा आता है पर वह हमलावर नही होती , हर जगह समझाने की कोशिश होती है । पुरुष की कठोरता से भी आक्रोश नही है वो दोषी भी नही ठहराती पर तर्क साबूत रखती है,वह कठोरता की व्यर्थता बताते हुए  कोमलता अपनाने की सलाह देती है । उम्रदराज पर तलवार भांजने वाली पीढ़ी को सावधान करती है "उमर की ये ढलान /हमारी भी तो आयेगी /नौजवानी की हमारी /ये नादानी / तब बहुत हमें तड़पायेगी " ।
नीरु  कवि के अस्तित्व को तुलनीय बनाने से रोकती है,कोई कवि की औकात नापने की कोशिश करे तो उसे सहन नही होता  "बड़ा दुःखद है/ जब अनमोल/कवि हृदय की/ बोली लगाई जाती है " । समकालीन समाज में आई विकृतियों पर संग्रह में बड़े नुकीले प्रश्न खड़े किये गये हैं । "जन्मदिन " के मौके पर बेतरह उन्माद को सवालों के घेरे में खड़ा किया गया है " जन्मदिन /जीवन की सार्थकता /के आंकलन /का दिन  " ।
पूरे संग्रह में कवयित्री का एक  दार्शनिक मनोभाव पसरा है, जहाँ न कोई हमला है न कोई रगरा है पर एक आईना जरुर है ,आप चाहे तो निहार लो खुद को ,जिसे निहारे बिना आप आगे बढ़ भी नही सकते , बढ़ भी गये तो सुकून से रह भी नही सकते । नीरु की कविताओं में यथार्थ का धरातल कहीं छूटने नही पाता ,चाहे वह भौतिक जगत  हो या आध्यात्मिक  । संतुलन की एक गहरी आकांक्षा सर्वत्र दृष्टव्य है , जहाँ इसका उल्लंघन होता है वहाँ मौन विद्रोह खड़ा हो जाता है । " प्रश्नचिन्ह " शीर्षक कविता इस संग्रह में सर्वाधिक घनत्व के साथ उभरती है,जहाँ पहले उपेक्षा किन्तु सफलता पर श्रेय  लेने के दावे पर गहरा कटाक्ष होता है "तुम्हारी देहरी पर रखा दीपक /प्रतीक्षा में रहा वर्षों तलक/-------- फिर से दीपक के मन में/ कहीं अँधेरा पलने लगा/तुम्हारा ये प्रेम उसे /प्रश्नचिन्ह बन कर छलने लगा"
                          ---- रमाशंकर शुक्ल
                              वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक
                          पता - विन्ध्यवासिनी कालोनी
                             नहर के पास, भुरुहाना रोड
                             मिर्जापुर - उत्तर प्रदेश
                            पिन -231001

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