Friday 7 October 2016

जीवन-सुधा की खोज़

   भारत देश ने अपनी आजादी के तो सत्तर साल पूरे कर लिये मगर भारतवासियों की सदियों से चली आ रही मानसिक गुलामी की बेड़ियां तो देश को अभी भी जकड़े हुए हैं | वास्तव में स्वतंत्रत होने का क्या अर्थ होता है यदि हम इस पर विचार करें तो अधिकांशत: मंहगे कपड़े, चमचमाती मंहगी गाड़ियां , देर रात तक सैर-सपाटा, मौज-मस्ती , शराब, शबाब और सिगरेट जैसी अनेक विसंगतियां उभरकर सामने आती हैं, किसी यक्षप्रश्न की तरह जिनके जवाब हम सबको तो मालूम ही होगा |
  आज के चरम पर स्थित आदिम प्रवृत्ति में पुरुषवादी अहं के प्रतिउत्तर में महिलाओं का विद्रोही कदम अनायास उसी ओर बढ़ता जा रहा है जो कि सामाजिक-पारिवारिक दृष्टिकोण से शोभनीय तो नही माना जा सकता किंतु कोई ये कहे कि स्त्रियों के प्रति अत्याचार में केवल स्त्रियां ही जिम्मेदार होती हैं तो ये बात पूरी तरह सत्य तो नही मालूम होती क्योंकि अश्लीलता के चक्रव्यूह में उन अबोध बच्चियों का क्या दोष होता है जिन्हें या तो कोख में ही मार दिया जाता या फिर जन्म लेने के बाद भी बलात्कार जैसी भयावह त्रासदी का भय आजीवन रहता है |
  सुनने -पढ़ने में अधिकतर यही आता कि सारे बंधन , नियम जिनकी व्याख्या हर कोई अपनी इच्छानुसार करता रहता है वो केवल स्त्री जाति के लिए ही बनाये और जबरन लागू कराये जाते रहे हैं , तो क्या ये नही महसूस होता कि वर्तमान में कौन सी जाति , धर्म , वंश, लिंग, रुप-रंग आदि का भेद रह गया है जिसे किसी घटना या दुर्घटना का भय नही सताता हो |
   सतयुग में सत्य की प्रबलता रही तो स्त्री-पुरुष दोनों की बुद्धि संयमित आचरण , व्यवहार के रुप में सहयोगी रही, सभी नीति-नियम भी स्वाभाविक ही रहे सबके लिये किंतु जैसे जैसे समय बदलता गया वैसे वैसे बुद्धि भी बदलते हुए आज दुर्बुद्धि के रुप में सब पर हावी हो गयी है | किसी के हाथ की पांचों उंगलियां बराबर नही होती तो क्या ये नही मानना चाहिये कि हर जीवित प्राणी का अपना व्यक्तित्व, समझ , और व्यवहार होता है जिसमें हमें मिलजुल कर सामाजिक व्यवस्थाओं का पालन सबके हित के अनुसार ही संयमित होकर करना चाहिये |
  भारतीय साहित्य , वेद- पुराण विश्व की प्राचीन , अनेक भाषाओं की जननी संस्कृत भाषा में लिखे गये जो कि सुरक्षित रखे जाने की दृष्टि से उपयोगी रहे क्योंकि संस्कृत वैज्ञानिक भाषा है तो अध्यात्म भी विज्ञान ही है एवं जीवन के लिये संजीवनी समान है | भारतीय ज्ञान -विज्ञान से सारा संसार लाभ लेता रहा सदियों से किंतु विडम्बना ये है कि हम भारतीय आज भी आपस में ही उलझते रहते हैं |
   महाराज़ मनु ने अपनी प्रजा को " यत्र नार्यंस्तु पूज्यंते , रमंते तत्र देवता " इन पंक्तियों के माध्यम से यही संदेश दिया कि समाज में नारी को सम्मान्य और पूज्य स्थान देकर जब पुरुष की सहायक शक्ति के रुप में स्थान दिया जाता है तो समृद्धि , यश, सुख-शांति आदि से जीवन सर्वकल्याणकारी एवं उन्नतिमूलक रहता है |
  पुरुष हो या स्त्री , कोमलता , सहिष्णुता को निर्बलता का प्रतीक मानकर शोषण करने के षडयंत्र तो रचे ही जाते  रहे हैं जिसकी पृष्ठभूमि सदियों से लिखी जाती रही तो यहां ये कहना उचित ही होगा कि क्या माँ के सिवा विश्व में कोई और शक्ति है जो शिशु का लालन -पालन, पोषण कर सके , हमारे भारत देश के पौराणिक ग्रंथों में नारी को लेकर ही नही बल्कि पूरी मानव जाति या कि संपूर्ण सृष्टि के लिए हितकारी भविष्य के लिए शुभकामना रुपी मंत्रोल्लेख हैं किंतु कहते हैं कि नकल करने से अक्ल नही आती लेकिन अक्ल हो तो नकल की जरुरत ही नही होती है | सीखने की तो कोई उम्र ही नही होती मगर अधिक मिठाई में कीड़े तो अधिक सिधाई पर आरी चलती रहती है इसलिए जरुरत से ज्यादा भोलापन या चालाकी दोनों ही बुद्धि को भ्रमित करके भृष्ट आचरण को बढ़ावा देती है |
  प्राचीनकाल से ही नारियां घर-गृहस्थी के साथ ही समाज, राजनीति, धर्म, कानून, न्याय जैसे सभी क्षेत्रों पुरुषों की सहायक, प्रेरक की भूमिका में रहीं हैं इसी संदर्भ में आचार्य चतुरसेन शास्त्री के विचार उल्लेखनीय हैं कि " नारी पुरुष की शक्ति के लिए जीवन सुधा है | त्याग, सहनशीलता, प्रेम तो उसके स्वाभाविक गुण हैं "| सृष्टि के संतुलन के लिए एक ही शक्ति को दो भागों में मैथुनी सृष्टि के निर्माण , संचालन आदि के लिए किया गया जिसको नर-मादा या पुरुष और नारी कहा जाता है |
  ऋग्वेद के नासदीय सूक्त ( अष्टक 8, मं० 10 , सू० 129 ) में वर्णन किया गया है कि संसार की उत्पत्ति जल से हुई है , जल का ही एक पर्यायवाची है "नार" | जब शिशु गर्भ में होता है तो उसके जीवन के पोषण के लिए माँ के रक्त से गर्भनाल द्वारा पोषक आहार मिलता है तथा जन्म के पश्चात माँ का स्तनपान शिशु के सर्वांगीण विकास के लिए अमृत समान होता है अतः महादेवी वर्मा जी की लेखनी से उद्भूत पंक्तियां महत्वपूर्ण हैं कि - " नारी केवल मांसपिण्ड की संज्ञा नही है , आदिम काल से लेकर आज विकास पथ पर पुरुष का साथ देकर उसकी जीवन यात्रा को सफल बनाकर उसके अभिशापों को स्वयं झेलकर अपने वरदानों से जीवन को अक्षय शक्ति से भरकर मानवी ने जिस व्यक्तित्व चेतना का विकास किया है , उसी का पर्याय नारी है |"
   यह संसार ही द्वंद्वात्मक , मिथुनजन्य सृष्टि है जिसमें समस्त पदार्थ , स्त्री-पुरुष , शक्ति और सामर्थ्य के रुप विभाजित किये गये हैं , परस्पर दोनों के बीच आकर्षण शक्ति तो संसार का मूलाधार है क्योंकि पुरुषार्थ के चार भागों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का विधान है तो ऐसे में केवल काम की प्रबलता एवं नारी शक्ति को केवल भोग-विलास की वस्तु समझना क्या  विनाशकारी नही कहा  जा सकता है ?  क्या ये नही लगता कि संयम और संस्कार को यूं ही दरकिनार करके धनलिप्सा, दिखावा, झूठ, स्वार्थ , प्रपंच, ईर्ष्या की प्रबलता में हम अपनी अगली पीढ़ियों को कुंठा की आग में झुलसने की राह दिखाते जा रहे हैं , हम सबको संयम और संस्कार के अमृत-कलश की छलकती बूंदें बनकर अपनी आने वाली पीढ़ियों के साथ मिलकर जीवन-सुधा की खोज़ में वर्तमान से भविष्य की रुपरेखा को आकार देकर इंद्रधनुषी रंग भरने की यात्रा तो तय करनी ही होगी |
------ नीरु ' निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

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