Thursday 27 August 2015

सांकल ( दरवाजे की डोर)

खोल दी मैंने
अपने और कई घरों के
दरवाजों की सांकल आहिस्ते से,
ये सोचकर कि
रोशनी का साथ होना भी जरूरी ,
बहुत अंधेरा होता है
कितने चेहरे, कैसे चेहरे हैं
कुछ पता नही चलता,
ऐसे में घर की चौखट से
निकलो तो
रास्तों पर भी अंधेरा ही मिलता ,
मिल जाते वहाँ अनगिनत पैर
नही दिखते जिनके चेहरे मगर,
कुछ पैर चलते - भागते
कुछ डगमगाते हुए
लगते जो कि आते हुए
अपनी ओर ही,
ऐसा एहसास होता अचानक
कि कई विषधर चले आ रहे हों
उन पैरों  की जगह,
कई दूसरे पैर उन पैरों को देख
परवाह नही करते और बेफिक्र
अपनी राह चलते,
कई और तो चुपके से
अपने को महफूज रखने को
दिशायें तलाशते,
लेकिन कोई मेरे डरे, सहमें हुए
पैरों के साथ नही चलता,
ये पैर किसके हैं नही पहचाने जाते
उनके चेहरे भी
क्योंकि घर से ही शायद
अंधेरा मेरे साथ चल रहा होता,
तभी तो आज मैंने
घर से निकलने के साथ
खुद ही खोल दी है अपने और
अपने रास्तों में मिलते घरों के
बंद दरवाजों की सांकल
कि रोशनी लेकर साथ चलूं
और लौटकर आ सकूं
अपने घर को शायद
मैं , सुरक्षित
----- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

Thursday 20 August 2015

चेहरे

नकाबों में छुपे हैं चेहरे कितने
झूठे थे ख्वाब जो, वो सुनहरे कितने
निगाहें भी निगेहबां भी हमारे वो
दिखाये अक्स जो, वो दोहरे कितने

----  नीरु ( निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी)

Sunday 16 August 2015

सच-झूठ

जिंदगी के अनेक रूप होते हैं,कभी छाँव तो कभी धूप,ऐसे ही कभी बदलते मौसम जैसे रंग बदलते हैं रिश्ते भी, फिर भी मन की डोर से बंधे रिश्ते कभी मन से दूर नही होते|
      वसुधा की माँ के असमय दुनिया से जाने के बाद उसके पिता भी टूट से गये थे ,कुछ दिनों बाद उन्हें भी लकवे की बीमारी ने बेबस कर दिया , अब घर चलाने की सारी जिम्मेदारी वसुधा पर ही आ गई आखिरकार वह ही तो सबसे बड़ी संतान थी उसके दो छोटे भाई-बहन अभी बहुत छोटे थे |
   समय पंख लगाकर उड़ान भरता बहुत दूर निकल आया और समय के साथ - साथ वसुधा कालेज़ में प्रोफेसर  और संजय बैंक में आफिसर हो गये थे केवल सुगंधा , सबसे छोटी, अभी कालेज़ के आखिरी साल में पढ़ रही थी|
     संजय और सुगंधा अपनी दीदी वसुधा को अपनी माँ जैसी ही मानते थे, वो उनके हर सुख-दुःख में उनके साथ हमेशा रहती थी, पिता की निगाहों में हमेशा अपनी बेटी के लिए गर्व की चमक दिखाई देती थी|
        वसुधा को ऐसा एहसास होने लगा था कि संजय और सुगंधा के अपने -अपने कुछ सुनहरे सपने सजने-संवरने लगे थे जिनमें उनके सपनों के साथी की खुशबू समाई थी |
         वसुधा ने यूं ही बातों -बातों में अपने इस एहसास की पुष्टि भी कर ली और शरमाते -सकुचाते संजय ने विशाखा और सुगंधा ने देवेश के साथ अपने प्रेम को स्वीकार भी कर लिया |
         वसुधा के लिए उसके भाई-बहन और पिता जी के अलावा और कोई कीमती न था, उसने संजय और सुगंधा के उनके सपनों के साथी के संग उनके जीवन की डोर बाँधने का फैसला कर लिया , साथ में पिताजी से इस बारे में सलाह-मशवरा भी किया, घर में सभी वसुधा के फैसले से बहुत खुश थे |
          अपने भाई-बहन के विवाह तैयारियाँ करने में वसुधा दिन भर भागते-दौड़ते निढाल हो जाती, एक तरफ कालेज़ की दूसरी तरफ घर की और फिर विवाह की जिम्मेदारियाँ भी वसुधा पर ही थी, थकान -कमजोरी से उसका चेहरा पीला पड़ गया, पिछले कुछ महीनों से जुक़ाम -बुखार उसका पीछा नही छोड़ रहा था |
         वसुधा की हालत देखकर संजय उसे लेकर डा० निर्भय की क्लीनिक पहुँचा | डा० ने उसे ब्लड टेस्ट कराने की सलाह दी ताकि इलाज में आसानी रहे | ब्लड टेस्ट कराने के दूसरे दिन जब संजय टेस्ट रिपोर्ट लेने पैथालॉज़ी  पहुँचा तो वहाँ बहुत भीड़ थी , इधर संजय को भी बहुत जल्दी थी | संजय के बार-बार कहने के कारण पैथॉलाज़ी  वाले ने  भी जल्दी में उसे रिपोर्ट पकड़ा दी |
          रिपोर्ट लेकर संजय डा० निर्भय के पास पहुँचा , रिपोर्ट पढ़कर डा० ने धीमे से कहा -' वसुधा का ख्याल रखो और जल्दी से इलाज़ शुरु कराओ, सब ठीक हो जायेगा |
           संजय ने पूछा - ' क्या हुआ है, सब ठीक है न ' डा० निर्भय बोले कि चिंता की कोई बात नही , ये बीमारी कई वजह से होती है, इतना सुनकर संजय ने डाक्टर के हाथ से रिपोर्ट लेकर पढ़ा और पढ़ते ही चुपचाप घर की ओर चल दिया |
          घर पहुंचने पर दरवाजे पर ही सुगंधा पिता जी को व्हील चेयर पर साथ लिये मिली, संजय ने दोनों को धीमे से कुछ बताया , सुनकर सबके चेहरे गंभीर हो गये थे |
          वसुधा ने कालेज़ से छुट्टी ले रखी थी , वह घर पर ही आराम कर रही थी लेकिन वो देख रही थी कि घर में सबका व्यवहार उसके साथ पहले जैसा नही था, जब उससे नही रहा गया तो वह संजय से पूछ बैठी -" क्या बात है संजय, सब मुझसे दूर-दूर क्यों रहते हैं ", संजय ने बड़ी तल्खी से जवाब दिया, - ये तो आप अपने आप से पूछिये , , जब तक वसुधा कुछ और पूछती संजय ने उसकी ब्लड टेस्ट रिपोर्ट उसके सामने लाकर पटक दी, रिपोर्ट पढ़ते ही वसुधा संज्ञाशून्य -सी हो गई, उसने सुगंधा को आवाज़ दी तो सुगंधा फुफ़कारते हुए बोली बोली -" क्या है?  अब तो आपकी असलियत सबको मालूम है" | स्तब्ध वसुधा समझ नही पा रही थी कि कैसी असलियत , वह फफकते हुए पिताजी के पास गई लेकिन वो उसकी तरफ से मुँह फेरकर दूसरी ओर देखने लगे |
             सुबह-सुबह दस्तक हुई किसी के आने की दरवाजे पर तो वसुधा चौंककर उठ बैठी, शायद डा० निर्भय होंगे वो इस समय कभी-कभार पिता जी का हाल-चाल पूछने आ जाया करते थे | दरवाजा खोलते ही चिर-परिचित मुस्कराहट सुबह की किरणों से भी ज्यादा सुकून देने वाली लगी वसुधा को |
              इतना उदास चेहरा तो नही देखा कभी वसुधा का, डा० निर्भय वसुधा को देख कर मन ही मन सोच रहे थे कि संजय पिताजी को लेकर आया और नमस्कार करते हुए डा० निर्भय से बैठने के लिए कहा | 
              चाय की चुस्कियां लेते हुए डा० निर्भय वे पूछा -" वसुधा, आपकी तबीयत कैसी है अब, आपने अभी तक अपना इलाज़ भी नही शुरू किया ?" बात सुनते ही वसुधा आँखों में आँसू छिपाये वहाँ से हटकर अंदर की ओर चली गई, डा० निर्भय ने चिंतित निगाहों से संजय से सवाल किया , तो वह बोला-" डा० साब , हमें अपनी दीदी पर बहुत भरोसा और गर्व था लेकिन उनकी इस बीमारी  ने सब खत्म कर दिया,, आखिर दीदी ने ऐसा क्यों किया?" |
               डा० निर्भय संजय की बात सुनकर आश्चर्य से बोले-" ये क्या कह रहे हो संजय, इतना पढ़-लिखकर भी ऐसी बातें तुम्हें शोभा नही देती, आखिर तुम कहना क्या चाहते हो" |
               संजय की चुप्पी ने निर्भय के सवाल का जवाब दे दिया, डा० निर्भय बोले- " संजय, ये बीमारी कई और कारण से भी हो सकती है, ये केवल अवैध संबंधों से ही नही होती, एड्स के मरीज़ का खून स्वस्थ इंसान को चढ़ाया जाये, या संक्रमित सूई के इस्तेमाल आदि से भी तो हो सकती है लेकिन छूने, साथ खाने आदि से  नही होती, क्या तुम ये सब नही जानते?"   डा० निर्भय ने वसुधा का फिर से ब्लड टेस्ट कराने को कहा  लेकिन जैसै किसी ने उनकी बात ही न सुनी हो |
              पिताजी ने डा० निर्भय को इशारे से कहा कि कुछ भी हो अब बदनामी तो हो ही गई है, अब न संजय का ब्याह हो पायेगा और न तो सुगंधा का, | डा० निर्भय की आवाज़ में दर्द था-" आप सब ऐसा क्यों सोचते हैं,क्या आप लोगों का भरोसा इतना कमजोर था, वसुधा ने कितने त्याग , कितना संघर्ष किया है आप सबके लिए, क्या आप लोग नही जानते कि वसुधा कैसी है, वो तो बहुत पवित्र है, आप लोग अपने भरोसे की डोर इतनी कमजोर न करिये," |
             पल भर को लगा जैसै घर में कोई है ही नही," क्या आप सब मुझे वसुधा का हाथ सौपेंगे" खामोशी को तोड़ती इस आवाज़ के पीछे सबने डा० निर्भय के चेहरे पर निर्णय का तेज देखा, यूं लगता था कि आधी उम्र बीत जाने के बाद भी कुंवारे, डा० को अपनी जीवनसंगिनी चुनने का हर्ष ,इस निर्णय के साथ गर्व में झलक रहा हो-" हाँ , मैं वसुधा का हाथ थामना चाहता हूँ, क्या आप सब मुझे वसुधा से विवाह की अनुमति देंगे" |                          वसुधा और बाकी लोग डा० निर्भय के फैसले को बदल न सके और दूसरे दिन ही उनका विवाह हो गया |
              डा० निर्भय ने शहर के सबसे अच्छे पैथॉलाज़ी में वसुधा का ब्लड टेस्ट फिर से कराया लेकिन ये क्या ? ये रिपोर्ट तो कुछ और ही कह रही थी, डा० निर्भय ने एक बार फिर टेस्ट कराया लेकिन रिजल्ट फिर वही , रिपोर्ट तो नार्मल बता रही थी इस बार भी, बस स्नोफीलिया बढ़ी थी वसुधा की | डा० निर्भय ने पूछा कि इसके पहले किस पैथॉलाज़ी में ब्लड टेस्ट कराया गया था , पता मालूम कर वो पहुँचे और वसुधा की रिपोर्ट दिखाई फिर पूछा कि ये रिपोर्ट कैसै और क्यों दी गई , सच्चाई ये थी कि भीड़ अधिक रही संजय की जल्दबाजी ने पैथॉलाज़ी वाले से एक गलती करवाई थी कि किसी और मरीज़ की रिपोर्ट वसुधा को दे दी गई |
             सच्चाई जानकर वसुधा के घरवालों को खुशी से ज्यादा अपने किये पर शर्मिंदगी थी, कोई आँखें नही मिला पा रहा था वसुधा से | वसुधा तब भी उदास थी और अब भी क्योंकि उसकी पहली रिपोर्ट भले ही झूठी रही हो लेकिन उसके कारण  उसने जो दर्द जिया वो सच था | इतना तो था कि इसी सच-झूठ के बीच जीवन का विश्वास आज उसका जीवनसाथी है | 
-------- निरुपमा मिश्रा "नीरू"

Saturday 15 August 2015

देश

देश के लिए भी तो मशविरा करिये
कुर्बान अपनी जिस्म-ओ-जां करिये
अंधेरा न हो रास्तों पर कभी भी
हो सके तो चिराग़ -सा जला करिये
---- निरुपमा मिश्रा " नीरू"

Saturday 8 August 2015

परिवर्तन

जानती हूँ जीवन में
आगे जाने के लिए अपनी मजबूत
जगह बनाने के लिए
अपने को बहुत बदलना पड़ता है,
पर इस बदलने की
कोशिश में कहीं हम खुद को ही
न  कहीं भूल जायें,
अपने चेहरे पर किसी और का
मुखौटा न लगायें,
जरूरी है कुछ पाने के लिए
कुछ खोना,
लेकिन जरूरी तो नही
ऐश्वर्य पाने के लिए
ईश्वर को खोना,,,,
----- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

Sunday 2 August 2015

मित्रता

प्यार,स्नेह,ममता का भला कोई क्या मोल दूँ मैं
शब्दों से ऊपर जो, उसे कोई क्या बोल दूँ मैं
रिश्तों में दोस्ती है तो कायम दोस्ती से रिश्ते
साँसें हैं जिनसे,नाम कोई क्या अनमोल दूँ मैं
----- निरुपमा मिश्रा "नीरू"