सन्नाटों की गुफ्तगू में अजब तूफान हैं
खामोश लफ्जों में शोर दर्द का बयान हैं
हुई है बेमौसम बारिश में कोई साजिश
सूनी आँखों में भीगे हुए कुछ अरमान हैं
---- निरुपमा मिश्रा " नीरू "
मन के बोल पर जब जिंदगी गहरे भाव संजोती है, विह्वल होकर लेखनी कहीं कोई संवेदना पिरोती है, तुम भी आ जाना इसी गुलशन में खुशियों को सजाना है मुझे, अभी तो अपनेआप को तुझमें पाना है मुझे
Saturday 28 February 2015
बेमौसम बारिश
Sunday 22 February 2015
वजह
उजले-उजले कागज़
पर जब स्याही
शब्दों के रंग
बिखेरती है
तो वजह होती है,
हर शक्सियत के
होते हैं मायने
कोई बहुत अच्छा
यूँ ही नही होता
तो बुरे होने की
वजह होती है,
आकाश के आँगन में
बादल यूँ ही
नही उमड़ते
बूँदें गुनगुनाती हैं
तो वजह होती है,
सुख आते हैं
दुःख आते हैं
बेमौत मरना ही क्यों
कि जीने की भी तो
कोई वजह होती है,
आँखें मिलकर
शरमायें
खिले चुपचाप
होंठों पर हँसी
तो वजह होती है,
हर वजह में शामिल
है रब की रजा
कि होती है
वजह होने की
भी वजह
--- निरुपमा मिश्रा "नीरू "
Thursday 19 February 2015
ऐसे क्यों निहारते हो
ऐसे क्यों निहारते हो
तुम मुझे
कि जैसे आसमान
घिरा हो बादलों से
और तुम
उनमें झिलमिलाते
चाँद जैसे ,
ये सुरमई धुंधलका
क्यों समेटता मुझे
तुम्हारे अंकपाश में,
छलकती सुधारस
प्रीति -गागर,
हृदय की अधीरता
अनायास
होती उजागर ,
दीपक की रोशनी
में नहाई
मोम- सी काया,
जलती हुई बाती -सा
प्रिय -उच्छवास
गहराया.....
----- नीरु
आशा
सुख-शांति की आशा में उम्र की सीढ़ियाँ चढ़ते गये
हर साँस हम नया सबक सीखते पीढ़ियां गढ़ते गये
मन-वचन-कर्म की शुचिता कब मिले दुनिया के चलन में
भेद-छल-दंभ के रिश्तों की बस बेडियाँ जड़ते गये
---- निरुपमा मिश्रा "नीरू"
Saturday 14 February 2015
अगर इजाजत हो
तुम्हीं को तुमसे मिला दूँ अगर इजाजत हो
कश्मकश दिल की मिटा दूँ अगर इजाजत हो
हया की चिलमन उठा दूँ अगर इजाजत हो
अब इसे अपना बना लूँ अगर इजाजत हो
प्यार की रस्म निभा दूँ अगर इजाजत हो
------ निरुपमा मिश्रा "नीरु "
सच-झूठ में पला है
मोहब्बत भी अजब बला है
सपना सच, झूठ में पला है
दिल पर काबिज रहा हमेशा
लफ्ज़ जो होंठ से फिसला है
फूलों सा महफूज़ कहाँ वो
मासूम काँटों पर चला है
मौसम इरादों का हमेशा
धूप कभी छाँव सिलसिला है
ऐब नही बातें अपनी हों
गुनाह है कि गैर मसला है
----- निरुपमा मिश्रा "नीरु "
Thursday 12 February 2015
जीवन का विश्वास
धरती ने नित परहित विकसित किये नवांकुर है
परहित जीवन जियें सार्थक वरन क्षणभंगुर है
मलयज के संग-संग चले अगर
जीवन की श्वांस बने,
कलकल करती नदियों के संग
जीवन का विश्वास बने,
सृष्टि का कण -कण देखो परहित में खुद आतुर है
सर्वस्व दिया नदियों ने फिर
क्यों सागर खारा सदियों से,
परहित प्रेम धरोहर जीवन
चलता रहता नदियों से,
अम्बर छलकाये घन-गागर प्रमुदित अंकुर है
प्रमादित नयनों के सपन-तितिक्षा
जब सुख आधार बने,
हृदय विचलित होता जब
प्रीति भी जगत व्यापार बने
जग-हित बरसे जो बादल अब धरती मधुर है
---- निरुपमा मिश्रा " नीरु "
Saturday 7 February 2015
दूर हमसे घर हमारा हो गया
ख्वाब में उसका नजारा हो गया
डूबते को भी सहारा हो गया
कुछ रही होंगी जरूरी ख्वाहिशें
वो न था दुश्मन हमारा हो गया
राह में मिलता न जाने कौन ये
आम भी तो खास प्यारा हो गया
आप भी देखो कहाँ कैसे रहे
दिल कहीं पर बेसहारा हो गया
छाँव मीठी लोरियाँ माँ की जहाँ
दूर हमसे घर हमारा हो गया
----- निरुपमा मिश्रा "नीरु "
Tuesday 3 February 2015
गुनाहों के मसीहा
नज़र वो तो नजारों से चुरायें हैं
लगी कहने कहानी ये हवायें हैं
छुपा कर दिल तराने वो सुनायेगा
जिसे सबने जमाने से भुलायें हैं
रही हलचल यहाँ सच बात पर ही तो
निगाहें भी न कहती ये छुपायें हैं
रहम तो कर कहेगा क्या ज़माना ये
बहुत नादान दिल तोड़े न जायें हैं
रहेंगे हम गुनाहों के मसीहा बस
कई सपनें सुहाने - से सजायें हैं
----- निरुपमा मिश्रा "नीरु "
Sunday 1 February 2015
आँसू
मैं जब भी ढलका
किसी मासूम की आँखों से
तो न जाने कितने
सपने ,
बचपन की शामें
जो सुलगते रहे
भूख-अभावों की आग से
मेरे अस्तित्व पर हँसते ,
मैं चुपचाप आँखों से निकल
खोजता अपने मायने ,
बेबस माँ की निगाहें
छलकते आँसुओं में
बयान करती हैं
मन में छिपे दर्द को,
पिता की आँखों से
लुढ़कता मैं झुर्रियों में
पढ़ता हूँ
अनगिनत - अनकही बातें ,
युवा निगाहें
जो भटक जाती हैं
बार- बार पहचानी
राहों पर तो अचानक
कोरों में टपकने को
बेताब सपने
मेरी ओट में छिप जाते,
अनकही तकलीफें
असहाय जिंदगी
जब बहाती सहमी रातों में
चुपचाप
आँसू ,
तब मैं सोचता हूँ
काश मैं भी बहा सकता
आँसू ,
जब शब्द नही मिलते
आँसू अर्थ समझाते हैं
लेकिन मैं कहाँ से लाऊँ
आँसू ,
मैं हूँ स्वयं
आँसू
------ निरुपमा मिश्रा " नीरु "