Thursday 27 August 2015

सांकल ( दरवाजे की डोर)

खोल दी मैंने
अपने और कई घरों के
दरवाजों की सांकल आहिस्ते से,
ये सोचकर कि
रोशनी का साथ होना भी जरूरी ,
बहुत अंधेरा होता है
कितने चेहरे, कैसे चेहरे हैं
कुछ पता नही चलता,
ऐसे में घर की चौखट से
निकलो तो
रास्तों पर भी अंधेरा ही मिलता ,
मिल जाते वहाँ अनगिनत पैर
नही दिखते जिनके चेहरे मगर,
कुछ पैर चलते - भागते
कुछ डगमगाते हुए
लगते जो कि आते हुए
अपनी ओर ही,
ऐसा एहसास होता अचानक
कि कई विषधर चले आ रहे हों
उन पैरों  की जगह,
कई दूसरे पैर उन पैरों को देख
परवाह नही करते और बेफिक्र
अपनी राह चलते,
कई और तो चुपके से
अपने को महफूज रखने को
दिशायें तलाशते,
लेकिन कोई मेरे डरे, सहमें हुए
पैरों के साथ नही चलता,
ये पैर किसके हैं नही पहचाने जाते
उनके चेहरे भी
क्योंकि घर से ही शायद
अंधेरा मेरे साथ चल रहा होता,
तभी तो आज मैंने
घर से निकलने के साथ
खुद ही खोल दी है अपने और
अपने रास्तों में मिलते घरों के
बंद दरवाजों की सांकल
कि रोशनी लेकर साथ चलूं
और लौटकर आ सकूं
अपने घर को शायद
मैं , सुरक्षित
----- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

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